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________________ और सज्जनजनोंके हृदयप्रिय थे, इनके बनाये हुये ग्रन्थ तस्वार्थराजवार्तिकालंकार, अष्टशती, न्यायविनश्चयालंकार लघोयत्रयी और वृहदत्रयी न्यायचूलिका प्रसिद्ध है जिसमें तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार मूल आजसे १४ साल पहले वीर निर्वाण संवत् २४४१ ईस्वी सन् १६१५ में इसी संस्था द्वारा वनारससे प्रकाशित हुआ था और उसीका हिन्दी अनुवाद आज प्रकाशित हो रहा है जिससे ग्रन्थकर्ताकी ज्ञानगरिपाका भलीभांति परिचय मिलता है। श्रीप्रकलंक स्तोत्र ग्रन्थ और अनेक पुरातन ग्रन्थोंसे जाना जाता है कि इन आचार्यने अपने जीवनकालमें जैनधर्मका डंका बजाया | था और उसके प्रभावसे बोद्धमतानुयायी हिन्दुस्तानमें नहीक बराबर हो गये थे। यदि इन अचार्यमहाराजका प्रादुर्भाव उस समय न होता | तो यह संभव ही नही, निश्चय था कि जैनधर्मानुयायियोंकी संख्या आजकल जितनी देखनेमें आती है, वह न रहती। अन्य विद्वानोंके दांत खड़े करनेवाले सदयुक्तियोंसे ग्रथित ग्रन्थोंका निर्माण यदि उस समय न होता तो निःकलंक जैनवाणीको भी लोग सकलंक समझनेमें प्रागा PSI पोजन करते यही कारण है कि जेनसमाजमें आजतक इनका नाम बड़ी भक्ति और गौरवके साथ लिया जाता है। इन श्रोप्राचायने मनुष्योंकी 15 बात तो जाने दीजिये, बौद्धोंकी आराध्य देवी तारा तकको बादमें परास्त किया था जिसके कारण जैनधर्म की असाधारण प्रभावना हुई। यह ग्रन्थ प्रति विशाल और बहव्यय साध्य होनेसे छह खंडोंमें प्रकाशित किया गया है जिसमें कुल मिलाकर पृष्ठ करीव २५०० है। प्रति अध्यायके अंतमें रचयितामोंके नामोंका उल्लेख किया है। संशोधनमें यथाशक्ति परिश्रम किया गया है तथापि बुदिमांद्य चतुदोष प्रमाद प्रादि कारणोंसे अशुद्धि रह जाना निश्चित है। स्वाध्याय करनेवाले महाशयोंसे प्रार्थना है कि अनुवाद या संशोधनकी भूलको देखते ही संस्थाके कार्यालयमें सूचना कर दें जिससे उसको सुधारणा की जासके। निवेदकपन्नालाल वाकलीवाल, महामंत्री,
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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