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________________ अध्याय भाषा || anesantal RECEMBIRHAAGRECRUCIENDRAISHIDARSA लेश्यादिशब्दा उक्तार्थाः॥१॥ लेश्या आदि शब्दोंका अर्थ ऊपर वतला दिया गया है । लेश्या च परिणामश्च देहश्च वेदना च विक्रिया च लेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया' ता येषां ते तथाभूताः यह यहां पर द्वंद्वगर्भित वहुव्रीहि 'समास है । यदि यहां पर यह कहा जाय कि-तरप् प्रत्ययका व्याकरण शास्त्र के अनुसार वहीं प्रयोग माना है जहां एकमें दूसरेकी अपेक्षा प्रकर्षता होती है यहां पर नरकोंकी अपेक्षा किसी अन्य जगहपर अशुभलेश्या आदि कम हों और उसकी अपेक्षा नरकोंमें अधिक हों तब तो उस अन्य जगहरूर प्रतियोगीकी अपेक्षा नरकोंमें अशुभतर लेश्या आदि माने जा सकते हैं। परंतु सो कोई वैसा अन्य प्रतियोगी है नहीं इसलिये अशुभतर यहां पर प्रकर्षके निर्देशार्थ तरप् प्रत्ययका प्रयोग अयुक्त है। वार्तिककार इस विषयका समाधान देते हैं तिर्यग्व्यपेक्षाऽतिशयनिर्देशः॥२॥ अशुभ लेश्या आदि तियच और नारकी दोनों होती है वहांपर तिर्यचों की अपेक्षा नारकियों की अशुभलेश्या आदि प्रकर्षतासे हैं यह द्योतन करनेकेलिये 'अशुभतर' यहांर तरप् प्रत्ययका निर्देश है। अथवा अापेक्षो वा ऽधोगतानां ॥३॥ पहिले पहिले नरकों की अपेक्षा आगे आगेके नरकोंमें अशुभ लेश्या आदिकी प्रकर्षता है इसलिये। | इस प्रकर्षताके द्योतन करनेकेलिए अशुभतर यहां पर तर प्रत्ययका विधान सार्थक है । शंका १-पहिले नरककी अपेक्षा दुसरे नरवमें अशुभलेश्या आदिकी प्रकर्षता है। दूसरेकी अपेक्षा तीसरेमें प्रकर्षता है इसरीतिसे AURANGABARDAESCRIBREALEGALISEASE - kaman DI८०१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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