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अध्याय
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धर्मा नरकके इंद्रक विलोंकी मुटाई एक कोशकी है। श्रेणिवद्ध विलोंकी मुटाई एक कोश और एक ६ कोशके तीन भाग है। एवं पुष्पप्रकीर्णक विलोंकी मुटाई दो कोश और एक कोशके तीन भाग है। इसी प्रकार सर्वत्र जाननी चाहिये।
ऊपर जिन नरक-विलोंका उल्लेख किया गया है वे सब ऊंट मुख आदि अशुभ आकारके धारक हूँ हैं। अर्थात्-प्रथम नरकसे तीसरे नरक तकके नारकियोंकी उत्पचिके स्थान-नरक अनेक तो ऊंटके हूँ
आकारके हैं अनेक कुंभी (घडिया) कुस्थली मुद्गर और नाडीके आकारके हैं। चौथे और पांचवें है है नरकोंके नारकियोंके जन्म स्थान अनेक तो गौके आकारके हैं अनेक हाथी घोडा भस्रा (घाँकनी) है
नाव और कमलपुटके सदृश हैं । छठी और सातवीं पृथिवीमें नाकियोंके जन्मस्थान बहुतसे तो खेतके ॐ आकारके हैं। बहुतसे झालर और मल्लिकाके आकारके हैं एवं अनेक भौरेके आकारके हैं। तथा उन
नरकोंके शोचन रोदन और आनंदन आदि अशुभ नाम हैं ॥२॥ ___ऊपर जिन सोमंतक आदि विलोंका उल्लेख कर आये हैं उनमें प्रकृष्ट पापकर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाले नारकी जीव कैसे हैं सूत्रकार उनके कुछ स्वरूपका उल्लेख करते हैं
नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः॥३॥
नारकी जीव सदा ही अशुभतर लेश्यावाले, अशुभतर परिणामवाले, अशुभतर देहके धारक, 3 अशुभतर वेदनावाले और अशुभतर विक्रिया करनेवाले होते हैं। निरंतर अशुभ कर्मका उदय रहनके
कारण उनके परिणामादि सदा अशुभ ही रहते हैं।