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________________ 2 013 ८ अध्यार SALEGACASSARIBASANTOSHSECONOR आकाशका आधार माना जायगा उर कोई अन्य आधार माना जायगा इसलिए आधारके मानने वान माननेरूप दोनों पक्षों में दोष उपस्थित ३. होने पर यह सब आधार आधेयकी कल्पना निर्मूल है ? सो ठीक नहीं। यह नियम है कि जो विभु हूँ द्रव्य अर्थात महत्परिमाणवाला द्रव्य होता है वह किसीके आधार नहीं रहता क्योंकि जो पदार्थ महत्यहै रिमाणवाला हो और दूसरेके आश्रित भी हो ये दोनों बातें आपसमें विरुद्ध हैं। किंतु जो विभु नहीं है होता वह अवश्य दूसरेके आधीन रहता है जिस तरइ घट आदि क्योंकि घट आदिके आधार भूमि है आदि माने हैं। शंकाकारने आकाश द्रव्यको विभु द्रव्य मान रक्खा है इसलिए उसका कोई अन्य ) 3 आधार नहीं माना जा सकता। यदि उसका आधार कोई दूसरा पदार्थ माना जायगा और उस S, आधारका आधार भी कोई दूसरा पदार्थ माना जायगा तो फिर कहीं भी आधारका निश्चय न होनेसे हूँ अनवस्था दोष होगा इसलिए आकाशको अपना आधार आप ही मानना होगा। तथा यह जो कहा हूँ था कि यदि आकाशको अपना आप आधार माना जायगा तो भूमि आदिको अपना आप आधार खीकार करना पडेगा किसी अन्य पदार्थको उनके आधार माननेकी कोई आवश्यकता नहीं वह अयुक्त है क्योंकि विभु द्रव्यका अन्य कोई आधार नहीं हो सकता। भूमि आदि तो विभु द्रव्य हैं नहीं, . इसलिए उनका तो अवश्य कोई न कोई आधार मानना होगा और वे धनवात आदि स्वीकार करने २ पडेंगे। यदि कदाचित् यह शंका उठाई जाय कि. मूर्तिक पदार्थका मूर्तिक पदार्थ ही आधार हो सकता है और उसमें उसके डाटनेकी शक्ति है ७८ मूर्तिकको अमूर्तिक नहीं डाट सकता। तनुवात मूर्तिक पदार्थ है और आकाश अमूर्तिक पहार्य है
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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