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________________ DOGSAHIBGS भाग। सातवे नरकके अंतमें छै राजू और एक राजूके सात भागोंमें एक भाग है और पाताल लोकके अंतमें विस्तार सात राजू है । इसी रीतिसे जब उत्तरोचर विस्तारकी अधिकतांसें दो भूमियोंका आपसमें 8 अध्यान संबंध करने पर एककी अपेक्षा दूसरीको पृथुत्व महानपना सिद्ध है तब नरक विलोंके परिमाणकी छ अपेक्षा न कर विस्तार रूप परिमाणकी अपेक्षासे 'पृथुतराः' यहां पर तरप् प्रत्ययका प्रयोग निरर्थक नहीं। यदि यहां पर यह शंका हो कि रत्नप्रभा आदि भूमियोंका पृथुत्व-विस्तार रूप परिमाण, उन भूमियोंका परिमाण नहीं किंतु भूमियोंसे वाह्य है । सो ठीक नहीं। स्वयंभूरमण समुद्रके एक अंतसे दूसरे अंततक जो डोरी है उसका नाम राजू है वह राजू पूर्व पश्चिम आदि दिशाओंके विभाग करनेवाले काल महाकाल रौरव और महा रौरव रूप विलोंके अंततक ली गई है ऐसा आगममें कहा गया है इसलिये वह पृथुत्व-विस्तार, 15 टू भूमियोंमें ही परिगणित है। और वह हीनाधिकरूपसे है इसलिए तरप प्रत्ययका प्रयोग निरर्थक नहीं। हूँ यदि यहां पर यह कहा जाय कि विस्तारकी अपेक्षा यदि पृथुता-महानपना माना जायगा तो समस्त . है भमियों में कथंचित् तिर्यक्रूपसे पृथुता सिद्ध हो सकती है अर्थात् कथंचित् चौडाईकी अपेक्षा नीचे नीचे - है की अपेक्षा नीचे नीचेकी भूमि महान मानी जा सकती है, नीचे नीचे उनकी पृथुता सिद्ध नहीं हो * सकती अर्थात् लंबाईकी अपेक्षा वे महान नहीं मानी जा सकती इसलिये 'तिर्यक्पृथुतरा' ऐसा । सूत्रमें उल्लेख करना चाहिये 'अधोधः पृथुतरा' यह न कहना चाहिये । उसका समाधान यह है कि । १ सातवे नरकमें अमतिष्ठान पाथडेमें अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रकविला है । उसकी पूर्व दिशामें काल, पश्चिम दिशामें महाकाल, दक्षिण दिशामें रौरव और उत्तरदिशामें महारौख नामका विला है। हरिवंशपुराण मापा पृष्ठ ३९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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