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________________ EASUPASABAUJRECODIRECECREASBABU असात् वेदनीय कर्मके विद्यमान रहते भी यदि चिकित्साके बीचमें ही दुःखका उपशम कर दिया जायगा तब भी कृतपणाशरूप दोष तदवस्थ है । यदि कदाचित् यहां यह कहा जाय कि-कडवी कसेली आदि औषधों के खानेपर कुछ क्लेश होता है वही क्लेश असात वेदनीय कमके उदयका फल है उस फलकों ६ देकर असातवेदनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर कृतप्रणाश दोष नहीं हो सकता ? तब वहांपर भी यह कहा कहा जा सकता है आयुका जीवनमात्र प्रदान करना यही फल है जबतक आयु रहे तबतक जीना यह RP फल नहीं बस उस जीवनरूप फलको प्रदानकर आयुकर्मके नष्ट हो जानेपर भी कृतप्रणाश दोष नहीं | हो सकता। यदि आयुकर्मके किसी विशेष फलकी कल्पना की जायगी तो वह वेदनीय कर्ममें भी मानी जायगी इसलिये विशेष फलका अभाव ही समानरूपसे दोनोंमें मानना पडेगा । इसलिये यह वात सिद्ध हो चुकी कि जिसप्रकार आम आदि फलोंके पाल आदिके संबंधसे बीच में ही विपाक दीख पडता है अन्यथा उसका पाल आदि लगाना व्यर्थ ही है उसीप्रकार चिकित्सा आदि कार्योंके देखनेसे किसी किसी मनुष्यकी अकालमृत्यु भी निश्रित है अन्यथा चिकित्सा आदिका कराना निष्फल है इसलिये अकालमृत्युका मानना प्रमाणसिद्ध है। इसप्रकार श्रीतत्त्वाराजवार्विकालंकारकी भाषाटीकामें दूसरा बचाव समात दुमा ॥२॥ عاما
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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