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________________ ब०रा० भाषा .SABRI है कि अंतरंग कारणो चिकित्सी आदिसे प्रतीकाइ कि दुःख भी असातवदनी उसकी निवृत्ति नहीं हो रोगजन्य क्लेशका अभाव करना ही उसका प्रयोजन है तब वहांपर भी यह कहा जा सकता है कि अकालमृत्युका दूर करना ही उसका प्रयोजन मान लेना चाहिये क्योंकि रोगजन्य दुःख और अकाल-8 हूँ मृत्युका अभाव दोनों ही कार्य चिकित्साके अनुभवमें आते हैं यदि कदाचित् फिर यहांपर यह शंका हूँ की जाय कि अकालमृत्यु आयुकर्मके क्षयकी कारण हैं इसलिये चिकित्सा आदिसे उसकी निवृचि नहीं हो है * सकती तब वहां पर भी यह कहा जा सकता है कि दुःख भी असात वेदनीय कर्मके उदयका कार्य है। १ इसलिये उसका भी चिकित्सी आदिसे प्रतीकार नहीं किया जा सकता। यदि यहाँपर यह कहा जाय 8 कि अंतरंग कारण असातवेदनीय कर्मका उदय और वहिरंग कारण बात पिच आदिके विकारकी ६ उपस्थिति दुःख होता है वात आदि विकारकी विरोधी औषधियां प्रत्यक्षसिद्ध हैं इसलिये उन्हें उप। योगमें लानेपर दुःखकी उत्पचि न होनेके कारण उसका प्रतिकार है तो वहांपर भी यह कहा जा सकता है.कि अंतरंग कारण आयुकर्मके उदयके रहनेपर और वहिरंग कारण पथ्य आहार आदिके विच्छेद है हो जानेपर जीनेकी कोई आशा नहीं रहती उस जीवनकी रक्षार्थ चिकित्सासे जीवनका विद्यमान ना ही अकालमृत्युका प्रतिकार है इसलिये चिकित्साके फलस्वरूप अकालमृत्युका निषेध नहीं जा सकता । यदि यहाँपर फिर यह शंका की जाय कि यु कर्मके विद्यमान रहते भी वीचमें ही यदि जीवनके अभावका प्रसंग (अकालमरण) माना तो कृतप्रणाश दोष अर्थात् अधिक आयुके उपार्जन करने के लिये तथा सुख भोगनेके लिये जो किया जाता है उसके फलका नाश हो जायगा तब वहांपर भी यह कहा जा सकता है कि CRORREKESAKASIASTE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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