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________________ 4. CRPUR ६ विच्छेद, मानकर औपपादिक आदिसे भिन्न संसारी जीवोंको अपवर्त्य आयुगला मानना अयथार्थ ६ है ? सो ठीक नहीं। जिसतरह आम्र आदि फलोंका जिससमयमें पाक होना निश्चित है उससे पहिले ही अया 8 उपायके द्वारा अर्थात् पाल आदिमें रखनेसे बीचमें ही पकजाना दीख पडता है उसीप्रकार मृत्युका जो ₹ समय निश्चित है उसके पहिले ही आयुकर्मकी उदीरणाके द्वारा बीचमें ही मरण हो जाता है इसरीतिसे है जब आंयुकर्मका अपवर्त युक्तिसिद्ध है तब औपपादिक आदिसे भिन्न संसारी जीवोंको अपवलं आयुवाला हूँ * मानना अयथार्थ नहीं। और भी यह वात है कि आयुर्वेदसामर्थ्याच्च ॥ ११ ॥ ___ अष्टांग आयुर्वेद विद्याका जानकार और चिकित्सा करने में परम प्रवीण वैद्य यह समझकर कि । 'वात आदिके उदयसे शीघ्र ही इसके श्लेष्म आदि विकार उत्पन्न होनेवाला है, वात आदिके उदयके पहिले अप्रकट भी उसे वमन और दस्त आदिके द्वारा नष्ट कर देता है तथा रोगीकी अकाल मृत्यु न हो जाय इसलिये रसायन खानेके लिये भी आज्ञा देता है । यदि अप्राप्तकाल मरण अर्थात अकाल मृत्यु न हो तब उसका रोगीको रसायन खानेकी अनुमति देना निरर्थक ही है क्योंकि अकाल मृत्यु न माने जानेपर रसायन बिना खाये भी रोगी बीचमें नहीं मर सकता परंतु रोगीको रसायन खानेकी अनु. यति वैद्यकी निरर्थक नहीं दीख पडती यह सर्वानुभवसिद्ध है इसलिये आयुर्वेद शास्त्रके आधारसे भी औपपादिक आदि जीवोंसे भिन्न संसारी जीवोंकी अकाल मृत्यु मानना युक्तियुक्त है । इससीतसे औपपादिक आदिसे भिन्न संसारी जीव अपवर्त्य आयुवाले हैं यह बात निर्विवाद सिद्ध है। यदि यहां पर यह शंका की जाय कि ७६५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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