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________________ WOR असार ज्योंका त्यों तदवस्थ रहेगा। इसलिए चरम शब्दका ग्रहण व्यर्थ नहीं। यदि कदाचित् यह शंका की जाय कि चरमग्रहणमेवेति चन्न तस्योचमत्वप्रतिपादनार्थत्वात् ॥९॥ यदि उत्तम देह कहनेपर अव्याप्ति दोष आता है तब चरमदेह शब्द ही कह देना चाहिए । ब्रह्म दत्त और कृष्ण आदि उचम शरीरी होनेपर भी चरमशरीरी नहीं इसलिए अव्याप्ति दोषका भी संभव || नहीं ? सो भी ठीक नहीं। 'चरम देह समस्त देहोंमें उत्तम देह है' इस तात्पर्यके प्रगट करनेकेलिए सूत्रमें | || उत्तम शब्दका ग्रहण किया गया है इसलिए उसका ग्रहण व्यर्थ नहीं। कहीं कहींपर 'चरमदेहाः' इतना| ||| ही पाठ रक्खा है । उत्तम.शब्दका उल्लेख ही नहीं किया है। विशेष-वास्तवमें चरम शरीरका अर्थ यही है कि अब दूसरा शरीर धारण नहीं करना होगा उसी शरीरसे मोक्ष प्राप्त हो जायगी इसलिये जो शरीर मोक्षका साक्षात् कारण है वह स्वयं उत्तम है उसकी उत्तमचा प्रगट करनेके लिये किसी भी शब्दकी आवश्यकता नहीं इसलिये वार्तिककारने 'चरमदेहा' इति केषांचित् पाठः' ऐसा भी कहा है। इसलिये सूत्रमें जो उत्तम शब्दका उल्लेख किया गया वह केवल चरम शरीरके स्वरूप प्रगट करनेके लिये है । इसरीतिसे औपपादिक चरमोचमदेहधारी और असंख्यातवर्षकी आयुके धारक अनपवलं आयुवाले हैं यह बात निर्धाररूपसे सिद्ध हो गई । यदि ६ यहांपर यह शंका की जाय कि अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धरपवर्ताभाव इति चेन्न दृष्टत्वादाम्रफलादिवत् ॥१॥ आयुके अंतसमयमें ही मरण होता है बीचमें मरण नहीं हो सकता इसलिये बीचमें ही आयुका अपवर्त SATABASEAAAAAAABBREA REERBARS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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