SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 779
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D समूर्छनं संमूर्छः स एषामस्तीति समूर्छिनः॥५॥ चारों ओरसे होनेका नाम संमूर्छ है वह संमूर्छ जिन जीवोंके हो अर्थात् जिनकी उत्पचिका कोई | ॥ निश्चित स्थान न हो, जो सब जगह चारो ओर उत्पन्न हों वे संमूर्थी जीव कहे जाते हैं। नारकाच संमूर्छिनश्च 'नारकसंमूर्छिनः' यह नारकसंमूर्थी शब्दका विग्रह है। नपुंसकवेदाशुभनामोदयान्नपुंसकानि ॥६॥ मोहनीय कर्म दो प्रकारका है एक दर्शनमोहनीय दूसरा चारित्रमोहनीय । चारित्रमोहनीयके भी दो भेद हैं एक कषाय वेदनीय दूसरा नोकषाय वेदनीय । नोकषायवेदनीयके हास्य रति अरति शोक भय, जुगुप्ता स्त्रीवेद वेद और नपुंसकवेद ये नौ भेद हैं। उनमें नपुंसकवेद और अशुभनामकर्मक उदयसे जो है PI जीव न स्त्री हों और न पुरुष हों वे नपुंसक कहे जाते हैं । यहाँपर नारकी और संमूर्छन जीवोंके नपुंसक का लिंग ही होता है अन्य कोई लिंग नहीं होता यह नियमस्वरूप कथन है । स्त्री और पुरुषोंके विषयभूत | मनोज्ञ शब्दोंका सुनना सुगंधका सूंघना, मनोहर रूपका देखना, इष्ट रमका चाखना और इष्ट स्पर्शका || स्पर्शन करनारूप कारणोंसे जायमान कण मात्र भी सुख, नारकी और संमूर्छन जीवोंको नहीं प्राप्त & होता॥ ५॥ 1 जब नारकी और संमूर्छन जीवोंके स्त्रीलिंग और पुल्लिगका सर्वथा निषेध कर दिया तब यह 10 स्वयं सिद्ध हो गया कि इनसे अवशिष्ट सब जीवोंमें तीनों लिंग होते हैं। परंतु देवोंमें नपुंसकलिंगका IME| सर्वथा अभाव है इसलिए सूत्रकार इस विषयको स्पष्ट किए देते हैं ECORDIBUTORSHABISESENSAHARSAL
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy