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________________ CA मज्जाव व्यवहिते वा परशब्दप्रयोगात् ॥५॥ पर शब्दका प्रयोग व्यवधान रहते भी होता है जिसतरह 'परा पाटलिपुत्रान्मथुरेति' अर्थात् 18|| पटनासे मथुरा परे है । यहां पटनासे अनेक प्रामोंसे व्यवहित भी मथुराको पर मान लिया जाता है। || उसीप्रकार आहारकसे पर तेजस और तैजससे व्यवहित भी कार्मणको पर माना गया है इसलिए 'परे'। में निर्देश ही कार्यकारी है । शंका बहुद्रव्योपचितत्वात्तदुपलब्धिप्रसंग इति चेन्नोक्तत्वात् ॥५॥ जब अनंत अनंत प्रदेशोंके समूहरूप तैजस और कार्मण शरीर माने हैं तब बहुत द्रव्यवाले होनेसे है | उनका इंद्रियोंसे ग्रहण होना चाहिए ? सो ठीक नहीं। ऊपर कह दिया गया है कि अनेक परमाणुवाले होनेपर भी बंधकी विशेषतासे तैजस और कार्मणका सूक्ष्म परिणाम होता है इसलिए उनका ग्रहण PI नहीं हो सकता ॥३९॥ MINS बाण मूर्तिमान द्रव्योंका पिंडस्वरूप है इसलिए जिसप्रकार पर्वत आदिसे उसकी गतिका निरोध हो जाता है-वह आगे नहीं जा सकता उसीप्रकार तैजस और कार्मण शरीर भी अनंते अनंते मूर्तिमान परमाणुओंके पिंड हैं और संसारी जीवके सदाकाल उनका संबंध रहता है यह आगे कहा जायगा' ॥ इसलिए उनके संबंधसे संसारी जीवोंके भी जाने योग्य गतिका निरोध होगा अर्थात् अगणित व्यवधान || करनेवाले पदार्थों के विद्यमान रहते वे स्वर्ग नरक आदि स्थानोंपर गमन न कर सकेंगे। सूत्रकार समा. ९ धान देते हैं कि सो ठीक नहीं क्योंकि ये दोनों ही शरीर ASHASABHALCHALIBABAMCEBOOBSE++ BERBAR MERAGALASSACROREA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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