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Sलिये मिथ्याज्ञानके नाशसे दोषका नाश हो जाता है। दोषसे पहिले प्रवृचि है और वह दोषका कार्य है। २०रा० । इसलिये दोषके नाशसे प्रवृत्तिका नाश हो जाता है। प्रवृचिसे पहले जन्म है और वह प्रवृचिका कार्य 15
है इसलिये प्रवृत्ति के नाशसे जन्मका नाश हो जाता है। जन्मसे पहिले दुःख है और वह जन्मका कार्य है इसलिये जन्मके नाशसे दुःखका भी नाश हो जाता है इसप्रकार तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञान, ईषा मायाचारी लोभ आदि दोष, प्रवृत्ति-प्रयत्न जन्म और दुःख जिस समय सर्वथा नष्ट हो जाते हैं उससमय सुख दुःखका जरा भी अनुभव नहीं होता अर्थात् उस समय सुख दुःखका भोक्ता आत्मा नहीं रहता, बस यही मोक्ष है यह नैयायिकोंका सिद्धान्त है।
. अविद्यांप्रत्ययाः संस्कारा इत्यादिवचनं केषांचित॥७॥ . , विद्यासे विपरीत-अनित्य पदार्थों में नित्यताका, आत्मस्वरूपसे भिन्न पदार्थोंमें आत्मस्वरूपता हूँ|का, अपवित्र पदार्थोंमें पवित्रताका और दुःखमें सुखका अभिमान करनेवाली अविद्या है और उसका
कारण संस्कार है। राग द्वेष आदि स्वरूप संस्कार कहा जाता है और पुण्य अपुण्य एवं, आनेज्यके भेद से वह संस्कार तीन प्रकारका है। जो संस्कार पुण्यके कारण हैं उनका विज्ञान पुण्यके होनेपर होता है
और उससे यह कहा जाता है कि अविद्या कारण संस्कार है और प्रतिनियतरूपसे वस्तुका जानना 5 विज्ञान है । जो संस्कार अपुण्यमें कारण हैं उनका ज्ञान अपुण्यके होनेपर होता है और उससे यह कहा 18|| जाता है कि संस्कारसे विज्ञानको उत्पचि होती है। जो संस्कार आनेज्यमें कारण हैं उनका विज्ञान || आनेज्यके होनेपर होता है। उससे यह कहा जाता है कि नाम रूपकी उत्पत्ति विज्ञानसे होती है। नाम हूँ रूपमें लीन इंद्रियां षडायतन कहा जाता है क्योंकि नामरूपकी वृद्धि होनेपर षट् आयतनोंसे कर्म
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