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और मनसे भिन्न आत्माके स्वरूपका दर्शन होने लगता है उससे फिर अधर्मकी उत्पचि नहीं होती उसी ||| ॐ प्रकार धर्मको उत्पन्न करनेवाले भी शरीर आदिक हैं जिस समय उनका सर्वथा नाश हो जाता है उस 8 भा 8 समय शरीर आदिसे भिन्न आत्माको साक्षात्कार हो जाता है और उप्तसे फिर धर्मकी भी उत्पचि नहीं * होती। क्योंकि धर्म अधर्मका जब तक आत्माके साथ संबंध रहता है तभी तक बंध होता है सम्बन्ध टू छूट जानेपर बंध नहीं होता इसतरह अनागतानुत्पचिसे यह धर्म अधर्मका नाश हो जाता है । है उसीतरह शरीरकी ओर दृष्टि डालने पर ठंडी गरमी और शोक आदि कारणोंसे होनेवाले शरीरके है खेदको देकर अधर्म नष्ट हो जाता है तथा विषय भोगोंके दोष देखने और द्रव्य गुण आदि छहो पदा
थोंक वास्तविक ज्ञानसे आनन्द प्रदान कर धर्मका भी नाश हो जाता है इसतरह यह संचितनिरोध रूप
धर्म अधर्मका नाश हो जाता है इसप्रकार दोनों तरहसे धर्म अधर्मका नाश हो जानेपर जिससमय संयोगका S, नाश हो जाता है उस समय मोक्षकी प्राप्ति होती है इहॉपर भी मोक्षकी प्राप्तिमें तत्त्वज्ञान ही कारण है। 4. यह वैशेषिकोंका सिद्धान्त है । तथा.
दुःखादिनिवृत्तिरित्यन्येषां ॥६॥ . . 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषीमथ्याज्ञानानामुत्तरोचरापाये तदनंतरायापादपवर्गः' अर्थात्-दुःख जन्म? है प्रवृत्ति दोष और मिथ्याज्ञान इनमें उत्तर उत्तर पदार्थोंके. नाश हो जानेपर पूर्व पूर्व पदार्थोंका। र भी नाश हो जाता है और जब दुःख आदि समस्त पदार्थोंका सर्वथा नाश. हो जाता है उस समय * मोक्ष प्राप्त हो जाती है यह न्यायदर्शनका दूसरा सूत्र है । सूत्र में सबसे उचर मिथ्याज्ञान है उसका ५२ १ तत्वज्ञानसे नाश हो जाता है । मिथ्याज्ञानसे पहिले दोष है और वह मिथ्याज्ञानका कार्य भी है इस
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