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________________ हू॥ तथा पुद्गलोंकी भी लोकके अंततक जो गति है वह भी श्रोणके अनुकूल ही है अर्थात्-जिस दि समय पुद्गलका शुद्ध परमाणु एक समयमें चौदह राजू गमन करता है वह श्रोणिरूप ही गमन करता है किंतु अन्य अवस्थामें उसकी गति भजनीय है अर्थात् वह श्रेणिके अनुकूल भी गमन कर सकता है प्रतिकूल भी, कोई नियम नहीं । श्रोणके प्रतिकूल जो गति होगी वह भ्रमण रेचन आदि स्वरूप होगी | इसलिए संसारमें भ्रमण रेचन आदि गतियोंकी सिद्धि भी निधि है ॥२६॥ जो प्राणोंसे जीवे उसका नाम जीव है इस व्युत्पचिकी अपेक्षा यद्यपि संसारी ही जीव हैं तथापि | पूर्वभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षा होनेवाले व्यवहारसे अथवा रूढि बलसे जिन्होंने समस्त कर्म बंधनोंको हूँ नष्ट कर दिया है ऐसे मुक्त भी जीव कहे जाते हैं ऐसा निर्धारण कर सूत्रकार मुक्तजीवोंके विषयमें विशेष | निरूपण करते हैं अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ मुक्तजीवकी गति मोडेरहित सीधी होती है अर्थात् मुक्तजीव एक समयमें सीधा सात राजू ऊंचा || गमन करता हुआ सिद्धक्षेत्रमें चला जाता है इधर उधर नहीं मुढता है। विग्रह व्याघात और कौटिल्य ये तीनों समानार्थ वाचक शब्द हैं। उस का अर्थ मोडा है। जिस गति | में मोडे न खाने पडें वह अविग्रह गति कही जाती है। यह मोडारहित गति मुक्तजीवके होती है। मोडारहित गति मुक्तजीवोंकी होती है, यह कैसे जाना जाता है ? इसका समाधान वार्तिककार देते हैं-टू उत्तरत्र संसारिग्रहणादिह मुक्तगतिः॥१॥ ,आगके 'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः' इस सूत्रमें संसारी शब्दका पाठ है उसकी सामर्थ्यसे COUGUSHAK MUSALESALC
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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