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________________ अध्पाव -OCIASPECIAASPACEok संबंधी शब्दोंमें जिसतरह गुरुशब्द सदा शिष्यकी अपेक्षा रखनेके कारण नित्यसापेक्षी और नित्य है । सापेक्षी होनेसे शिष्यका बोधक है इसलिये वहांपर निर्वाधरूपसे समास हो जाता है उसीतरह तदर्थाः । यहांपर यद्यपि सामान्य अर्थका वाचक और विशेषकी आकांक्षा रखनेवालातत् शब्द इंद्रियों की अपेक्षा रखता है तथापि वह नित्यसापेक्षी है एवं नित्यसापेक्षी होनेसे वह गमक है इसलिये गमक होनेसे वहां पर 'तेषामस्तिदर्थाः' इस षष्ठी तत्पुरुष समासके होनेमें किसीप्रकारकी बाधा नहीं हो सकती । इस-5 रीतिसे जो सापेक्ष होता है वह असमर्थ होता है। असमर्थ अवयवोंका कभी समास हो नहीं सकता हूँ 'तदर्थाः' यहांपर भी तत् शब्द असमर्थ है उसका भी समास नहीं हो सकता यह जो ऊपर कहा गया था वह निर्मूल सिद्ध हो गया। स्पर्शादीनामानुपूष्येण निर्देश इंद्रियक्रमाभिसंबंधार्थः॥४॥ स्पर्शके बाद रस, रसके बाद गंध, गंधके बाद वर्ण और वर्णके बाद शब्द यह जो आनुपूर्वी क्रमसे सूत्रमें स्पर्श आदिका उल्लेख किया.गया है वह 'इंद्रियोंके साथ स्पर्श आदिका क्रमसे संबंध है' यह, द्योतन करता है अर्थात् स्पर्शन इंद्रिय स्पर्शको, रसना इंद्रिय रसको, घाण इंद्रिय गंधको, चक्षु इंद्रिय हूँ वर्णको और श्रोत्रं इंद्रिय शब्दको क्रमसे ग्रहण करती है यह यहां तात्पर्य है। स्पर्श रसन आदि सामाहै न्यरूपसे पुद्गल द्रव्यके गुण हैं परंतु नैयायिक और वैशेषिकमतावलंबियोंने इन गुणोंके विषयमें एक है हैं विशेषरूपसे कल्पना कर रक्खी है और वह इसप्रकार है पृथिवीमें रूप रस गंध और वर्ण ये चारों गुण रहते हैं। जलमें रूप रस और स्पर्श ये तीन ही गुण रहते हैं गंध गुण उसमें नहीं माना तथा उसे बहनेवाला और स्निग्ध भी माना है । तेजमें रूप और RANDIRECEMBEReHADME. ६६६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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