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________________ HOMOGReadGREADRASGDPROGRAPHARMA श्रोत्रंद्रियंके बलसे परसे उपदेश ग्रहणकर बोलता नहीं किंतु वह तो केवलज्ञानावरणकर्मके सर्वथा नाश हो जानेपर जब अतींद्रिय केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है उससमय केवल रसना इंद्रियोंके सहायता मात्रसे - अध्याय वक्ता होकर समस्त शास्त्रीय पदार्थों का वर्णन करता है इसरीतिसे रसनाके क्तृत्वव्यापारमें जब श्रोत्र इंद्रिय कारण न पडी तब श्रोत्र इंद्रियकी अपेक्षा रसना ही बहुपकारी सिद्ध हुई इसलिये समस्त इंद्रियों है के अंतमे रसना इंद्रियका ही ग्रहण युक्ति सिद्ध है ? सो ठीक नहीं। यहांपर इंद्रियोंका अधिकार चल रहा है। जहांपर सर्वथा इंद्रियोंके द्वारा किया जानेवाला हित अहितका उपदेश संभव है उन्होंकी अपेक्षा यह कहा गया है कि श्रोत्र के द्वारा उपदेश श्रवण कर रसना इंद्रियसे बोला जाता है किंतु जिनके इंद्रियों का व्यापार आवश्यक ही नहीं उनके लिये यह नियम नहीं । छमस्थ जीवोंमें श्रोत्र इंद्रियके द्वारा उपदेश श्रवणके बाद ही रसना इंद्रियसे बोलना होता है इसलिये उनके लिये ही यह नियम है। सर्वज्ञको 5 ६ लक्ष्यकर यह कथन नहीं किया गया इसलिये उसकी अपेक्षा यह नियम न होनेसे कोई दोष नहीं । त अथवा-- ' एकैकवृद्धिक्रमज्ञापनार्थं च स्पर्शनादि ग्रहणं ॥१०॥ है आगे 'कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि' कीडा चिउंटी भौरा और ममुष्य आदिके है क्रमसे एक एक इंद्रिय अधिक है यह कहा गया है वहांपर इंद्रियोंकी क्रमसे वृद्धि बतलानेके लिये स्पर्शनके बाद रसना- रसनाके बाद घाण इत्यादि क्रमसे सूत्रमें इंद्रियोंका उल्लेख किया गया है। ___एषां च स्वतस्तद्वतश्चैकत्वपृथक्त्वं प्रत्यनेकांतः ॥११॥ स्पर्शन आदि इंद्रियोंकी आपसमें तथा इंद्रियवान आत्मासे भिन्नता और अभिन्नता अनेकांत LUCIETIESANSONGSecrector
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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