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तरा० भाषा
|| अपेक्षा श्रोत्र इंद्रिय अधिक उपकारी होनेसे उसका सब इंद्रियों के अंतमें पाठ रक्खा है । यदि यहां ||६|| पर यह शंका हो कि- :'
रसनमपि वक्तृत्वेनेति चेन्नाभ्युपगमात् ॥ ७॥ श्रोत्रप्रणालिकापादितोपदेशात् ॥८॥ | चक्रवर्ती आदिके अभ्युदय और मोक्ष रूप पदार्थोंके उच्चारणमें एवं पठन पाठन आदिमें रसना है | इंद्रिय भी प्रधान कारण है । विना जीभके अभ्युदय आदि पदार्थों का उच्चारण एवं पठन पाठन आदि | | हितकारी बातें सिद्ध नहीं हो सकती इसलिये इन बातोंमें श्रोत्रके समान रसना भी अधिक उपकारी | | होनेसे सब इंद्रियोंके अंतमें रसना इंद्रियका ही पाठ रखना आवश्यक है ? सो ठीक नहीं। जब वादीने रसना इंद्रियको अधिक उपकारी बतलाते हुए श्रोत्रको भी आधिक उपकारी स्वीकार कर लिया है तब वादकी समाप्ति हो चुकी क्योंकि जब श्रोत्र और रसना दोनों ही बहूपकारी हैं तब श्रोत्रका अंतमें पाठ | न रख रसनाका रखना चाहिये वा रसनाका अंतमें पाठ न रख श्रोत्रका रखना चाहिये यह विवाद ही. नहीं उठ सकता। जिसका अंतमें पाठ रख दिया गया उसीका ठीक है इसलिये बहूपकारी होनेसे रसनाका अंतमें पाठ रखना चाहिये यह शंका निर्मूल है । अथवा
रसनाकी अपेक्षा श्रोत्र ही बहपकारी है क्योंकि श्रोत्ररूपी नालिका द्वारा उपदेश सननेके वाद ही रसनाका बोलनेकेलिये व्यापार होता है इसीतसे रसनाकी अपेक्षा जब श्रोत्र ही बहूपकारी पदार्थ है तब सबके अंतमें उसीका पाठ न्याय प्राप्त है। यदि यहांपर यह शंका हो कि
सर्वज्ञे तदभाव इति चेन्नेंद्रियाधिकारात ॥९॥ छद्ममस्थ पुरुषके श्रोत्रंद्रियके वलसे दूसरेसे उपदेश सुनकर भले ही बोलना हो परंतु सर्वज्ञ तो
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