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________________ तरा० भाषा तत्राभ्यंतरं शुक्लकृष्णमंडलं वाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि ॥७॥ Pा अध्याय मसूरके आकार नेद्रियका जो भीतर सफेदभाग और काला गोलक है वह अभ्यंतर उपकरण है और पलक भापणी आदि वाह्य उपकरण हैं। यह नेत्रंद्रिय संबंधी निवृति और उपकरणका स्वरूप बतलाया है इसीप्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियोंके विषयमें भी योजना कर लेनी चाहिए। सूत्रकार अब भावेंद्रियका स्वरूप बतलाते हैं लब्ध्युपयोगी भावेंद्रियं ॥१८॥ अर्थ-लब्धि और उपयोग ये दो भेद भावेंद्रियके हैं वार्तिककार सूत्रमें जो लब्धि शब्द है उसपर || विचार करते हैं प्राप्त्यर्थक डुलभष् धातुसे क्ति प्रत्यय करनेपर लब्धि शब्द बना है । यहाँपर यदि यह शंका हो 'कि-विद्भिदादिभ्योःङ् । २-३-१०१। जिन घातुओंका षकार अनुबंध गया है उनसे और भिद् आदि हूँ धातुओंसे कर्ता न होकर भावमें स्त्रीलिंगमें अङ् प्रत्यय होता है, यह जैनेंद्र व्याकरणका सूत्र है। डुल, भषु धातुका पू अनुबंध गया है इसलिए उससे अङ् प्रत्यय ही होना चाहिए और जृष धातुसे जिसतरह 'जेरा बनता है और त्रपुषसे त्रपा बनता है उसीप्रकार लभष् धातुसे भी लभाही बना चाहिए, क्ति प्रत्यय | कर जो लब्धि' शब्द बनाया है वह अशुद्ध है ? सो ठीक नहीं।'अनुबंधकृतमनित्यं अनुबंधके आधीन जो कार्य होता है वह अनित्य अर्थात् कहीं होता है कहीं नहीं होता। यह भी व्याकरणका ही नियम | है अतः डुलभष् धातुसे अङ् प्रत्ययका जो विधान है वह भी षु अनुबंधके आधीन है इसलिए वह होना ६५३ चाहिए यह नियमरूपसे नहीं कहा जा सकता इसरीतिसे जब लभधातुसे अप्रत्ययका कोई निय ERSHARE SABREAG
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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