SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 662
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -%ATEST RRIAGE अध्या RECG GARCANESS त्रसग्रहणमादावल्पाचतरत्वादभ्यार्हतत्वाच्च ॥६॥ सकायके जीवोंमें मतिज्ञान आदि वा चक्षुदर्शन आदि आठों उपयोग होते हैं और स्थावरकायके है जीवोंके मतिज्ञान श्रुतज्ञान और चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन ये चार ही उपयोग होते हैं इसलिए स्थावर है जीवोंकी अपेक्षा त्रस जीव अभ्यर्हित हैं तथा स्थावर शब्दकी अपेक्षा त्रस शब्द अल्पअक्षरवाला भी है इसरीतिसे अल्पाक्षर और अभ्यर्हित होनेसे 'संसारिणत्रसस्थावरा' इस सूत्रमें स्थावर शब्दसे पहिले त्रसशब्दका उल्लेख किया गया है ॥१२॥ संसारी जीवोंका सामान्य और विशेषरूपसे भेदज्ञान हो चुका परंतु उनके विशेष भेद जो त्रस और 3 स्थावर हैं उनके विशेषका ज्ञान नहीं हुआ इसलिए उनका ज्ञान कराना चाहिए। उनमें एकेंद्रिय स्थावर जीवोंके विषयमें विशेष वक्तव्य न होनेसे आनुपूर्वी क्रमसे विभागकर अर्थात् आनुपूर्वी क्रमका उल्लंघन करके पहिले सूत्रकार स्थावर जीवोंके भेद प्रतिपादन करते हैं एथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयःस्थावराः॥१३॥ पृथ्वीकायिक जलकायिक तेजाकायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पांच भेद स्थावर , * जीवोंके हैं। स्थावर जीवोंके नियमसे एक स्पर्शन इंद्रिय ही होती है इसलिये पृथिवीकायिक आदि सब है जीव एकेंद्रिय हैं। नामकर्मोदयनिमित्ताः पृथिव्यादयः संज्ञाः॥१॥ पृथिवी काय आदि स्थावर नाम कर्मके भेद हैं। उनके उदयसे जीवोंके पृथिवी अप आदिनाम हैं। यद्यपि प्रथते इति पृथिवी' अर्थात् जो फैलनेवाली हो वह पृथिवी है आप्नुवंतीति आप जो चारों ओरसे HERBERABLE RECEPAL
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy