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________________ अन्याय - माषा मैढककी शिखा वा आकाशपुष्प आदि पदार्थ संसारमें आसिद्ध हैं तथापि असत् प्रतातिमें कारण होनेसे काल्पनिक सत्चा उनकी संसारके अंदर मानी गई है परंतु उनके उत्पादक कारण कोई नहीं इसलिये वे अकारणक हैं इसरीतिसे द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सत् पदार्थ घट पट आदि रूप पक्ष और असत् स्वरूप मैढककी शिखा आदि विपक्ष दोनोंमें रहने के कारण अकारणव हेतु अनेकांतिक-व्यभिचारी है। तथा 80५ ASSCORRECORRORSCADABADASHALCASHBA रवसे ना इसलिये साध्यस ६ । जो हेतु पक्ष समानत्यः शब्दः ही हो सकतusseuविरुद्ध वृत्तिरन कातिकम कितवृत्ति । उनम तत्ति अनैकांति हा साध्यसे विपरीतके साथ निश्चित हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं जिसतरह शब्द परिणामी नहीं है क्योंकि वह कृतक है। यहांपर कृतकत्वहेतुकी व्याप्ति अपरिणामिरवसे विपरीत परिणामित्वके साथ है क्योंकि जो कृतक होता है वह नियमसे परिणामी ( अनित्य) ही हो सकता है अपरिणामी [नित्य ] नहीं इसलिये साध्यसे विपरीतके साथ व्याप्ति रहनेसे यहां कृतकत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। १-विपक्षेऽप्यविरुद्ध वृत्तिरनकांतिकः ॥ ३०॥ अध्याय ६ । जो हेतु पक्ष सपक्ष विपक्ष तीनोंमें रहे वह अनकातिक हेत्वाभास है । उसके दो भेद हैं एक निश्चितवृत्ति दूसरा शंकितवृत्ति। उनमें "निश्चितत्तिनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् । आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ॥ ३१ ॥ जो हेतु विपक्षमें निश्चयरूपसे रहै उसे निश्चितत्ति अनेकांतिक कहते हैं जिसप्रकार शब्द भनित्य है क्योंकि प्रमेय है जैसे घडा। यहाँपर प्रमेयत्व हेतु निश्चित विपक्षवृत्ति अनेकांतिक है क्योंकि वह नित्य पदार्थ आकाश भादिमें निश्चित रूपसे रहता है “शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् । सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् । जो हेतु विपक्षमें संशयरूपसे रहे उसे शंकितवृत्ति अनैकांतिक कहते हैं जिसप्रकार सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वोलनेवाला है यहांपर वक्तृत्व हेतु शंकितविपत्ति अनेकांतिक है क्योंकि एक जगह सर्वज्ञ और वक्तृत्व रह सकते हैं आपसमें दोनोंका विरोध नहीं। प्रकृतमें अात्माके अभावका साधक अकारणत्व हूँ हेतु निश्चितविपक्षवृत्ति अनैकांतिक है पर मतमें-- चायः साधारणस्तु स्यादसाधारणको पर.। तथैवानुपसंहारी विधानेकांतिको भवेत् ॥२७-२८॥ मुक्तावली। साधारणानकांतिक असाधारणानकांतिक अनुपसंहारीभनेकांतिक ये तीन भेद अनेकांतिकहेत्वाभासकेमाने है। उपर्युक्त अकारणत्व हेतु इस मतानुसार साधारणानकातिक है। PERSORBABEPRABASAHEBURBIBAOURISM
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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