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ॐ है। यह सम्यकचारित्र जीव अजीव आदि पदार्थोंके वास्तविक स्वरूपके ज्ञान हो जानेपर जिस समय ॐ चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम क्षयोपशम और क्षय होता है उस समय होता है किंतु विना सम्यग्ज्ञान ७ के चारित्र, मिथ्याचारित्र कहा जाता है इसलिये उक्तं सूत्रमें चारित्रसे पहिले वीचमें ज्ञान शब्दका ६ प्रयोग किया है।
इतरेतरयोगे द्वंदो मार्ग प्रति परस्परापेक्षाणां प्राधान्यात् ॥३५॥ ,
यथा प्लक्षन्यग्रोधपलाशा इति ॥ ३६ ॥ जहां पर विशेषतासे चकार आवे और उसके सभी पदार्थ परस्पर सापेक्ष और प्रधान हों वह द्वंद्र समास कहा जाता है। द्वंद्वसमासके समुच्चय अन्वाचय इतरेतरयोग और समाहार ये चार भेद हैं। 4 जहां पर दो शब्दोंके अन्तमें द्विवचन और तीन आदि शब्दोंके अन्तमें बहुवचन आवे, जितने पदार्थों 19 का आपसमें समास किया जाय वे सभी पदार्थ आपसमें सापेक्ष और प्रधान हों एवं विशेषतासे चकार |
आ, वह इतरेतरयोग नामक द्वंद्व समास है। जिसतरह प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च पलाशश्च प्लक्षन्यग्रोध हूँ पलाशाः इहांपर वृक्ष विशेषके वाचक प्लक्ष न्यग्रोध और पलाश तीनों शब्दोंके अन्तमें बहुवचन है। हैं अस्तित्व आदि क्रियाओंकी, एक ही कालमें तीनोंके अन्दर समान रूपसे मौजूदगी है इसालेये तीनों ही है
प्रधान हैं । आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले हैं और विशेषतासे प्रत्येक शब्दके अन्तमें चकार है। - इमलिये इहां इतरेतरयोग नामक द्वंद्व समास है उसीप्रकार 'दर्शनं च ज्ञानं च चारित्र च दर्शनज्ञानॐ चारित्राणि' इहां पर भी दर्शन ज्ञान और चारित्रइन तीनों शब्दोंके अन्तमें बहुवचन है। तीनों ही आपस ६ १४
१ खुलासा व्याकरण ग्रंथों में देखना चाहिए।
-RemixRA-CANCHETANA