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व०रा० भाषा
|६|| लक्ष्यका भी निश्चय न हो सकेगा। यदि यह कहा जायगा कि उसका दूसरा लक्षण है तब वह भी |६|| अपने लक्ष्यसै अन्य कहना पडेगा उसका भी दूसरा लक्षण होगा वह भी अपने लक्ष्यसे अन्य कहना ||
| पडेगा इसप्रकार अप्रामाणिक अनेक पदार्थों की कल्पनासे अनवस्था दोष होगा। इसरीतिसे अनवस्थाके | भयसे लक्ष्य लक्षणका सर्वथा भेद नहीं माना जा सकता एवं जब लक्ष्य लक्षणका सर्वथा भेद सिद्ध | नहीं तब ज्ञान आदि गुण भी आत्मासे सर्वथा भिन्न सिद्ध नहीं हो सकते । और भी यह वात है कि
आदेशवचनात् ॥५॥ ___ लक्ष्य और लक्षणके कथंचित् अभेदसे आत्मा और ज्ञान आदि गुण एक हैं और दोनोंके नाम भेद आदि जुदे जुदे हैं इसलिए वे दोनों आपसमें भिन्न भी हैं यह अनेकांत सिद्धांतकी आज्ञा है इस लिए लक्ष्य और लक्षणके भेद रहनेसे आत्मा और ज्ञान सर्वथा भिन्न भिन्न पदार्थ हैं यह यहाँपर सर्वथा। | एकांती दोष लागू नहीं हो मकता। यदि यहांपर यह कोई शंका करे कि
नोपयोगलक्षणो जीवस्तदात्मकत्वात् ॥ ६॥ विपर्यय प्रसंगात् ॥ ७॥ नातस्तत्सिद्धेः॥८॥ | संसारमें यह एक सामान्य नियम प्रचलित है कि जो पदार्थ जिस स्वरूप होता है वह उसी स्वरूपसे FI उपयुक्त नहीं होता, किंतु अपनेसे भिन्न स्वरूपसे उपयुक्त होता है जिसप्रकार दूधका स्वरूप दूध है वह || कभी अपने स्वरूपसे उपयुक्त नहीं देखा गया। आत्माको भी ज्ञान आदि गुणस्वरूप माना गया है || इसलिए वह भी ज्ञान आदिसे उययुक्त नहीं कहा जा सकता इसरीतिसे ज्ञान आदिको जो जीवका उप|| योग माना गया है वह बाधित है । और भी यह बात है कि
ज्ञानसे अभिन्न जीव ही ज्ञानस्वरूपसे उपयुक्त होता है दुध आदि अपने दुध आदि स्वरूपसे नहीं
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