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________________ भाषा HARSHAHISHEKHABARSAARRIOR | को भाव साधन मान लिया तब कर्ता करणके व्यवहारकी योग्यता नहीं रही । इसलिये वादीने जो यह | दोष दिया था कि कर्ता करण सर्वथा भिन्न होते हैं यदि ज्ञानको करण और आत्माको कर्ता माना | जायगा तो आत्मासे. ज्ञानको सर्वथा भिन्न कहना पडेगा। वह दोष दूर हो गया । यदि यहाँ पर | यह शंका हो कि व्यक्तिभेदादयुक्तमिति चेन्नैकार्थे शब्दान्यत्वाद् व्याक्तभेदगतः ॥२९॥ 8 विशेष्यके जैसे लिंग और वचन होते हैं उसी प्रकार विशेषणके होते हैं ज्ञानं आत्मा अर्थात् आत्मा 5 हो ज्ञान है जब यहां विशेष्य आत्मा और विशेषण ज्ञान है तब आत्मा जिस तरह पुंलिंग शब्द है उसी | प्रकार ज्ञान भी पुलिंग होना चाहिये इसरीतिसे 'ज्ञानं आत्मा' कहना ठीक नहीं, ज्ञान आत्मा यह कहना है चाहिये। सो ठीक नहीं। एक ही अर्थमें शब्दोंके भेदसे लिंग वचन आदिका भेद होता है जिस तरह गेह कुटी और मठ ये तीनों शब्द घर रूप अर्थके वाचक हैं. तथापि शब्द भिन्न २ हैं इसलिये गेहें यह नपुंसक लिंग शब्द कुटी स्त्रीलिंग शब्द और मठ पुलिंग शब्द है, इसी तरह पुष्य तारका नक्षत्र ये तीनों शब्द नक्षत्र रूप अर्थके कहनेवाले हैं तो भी शब्दोंका आपसमें भेद रहनेसे पुष्य पुलिंग, तारका || स्त्रीलिंग, और नक्षत्र नपुंसक लिंग शब्द है। उसीप्रकार यद्यपि ज्ञान शब्द नपुंपक लिंग और आत्मा | शब्द पुलिंग है तथापि शब्दोंका भेद होनेसे लिंग आदिका भेद रहने पर भी कोई दोष नहीं। ' ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं तत्पूर्वकत्वाद्दर्शनस्य ॥३०॥ अल्पान्तरत्वाच्च दर्शनात् ॥ ३१॥ .. नोभयोर्युगपत्प्रवृत्तेः प्रतापप्रकाशवत् ॥ ३२॥ 'श्रद्धान, ज्ञान पूर्वक होता है जबतक पदार्थोंके स्वरूपका ज्ञान नहीं होता तब तक उनका श्रद्धान
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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