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________________ M EAGUPEGEOG पर संप्रदान अर्थमें प्रत्यय है तथा जिसके द्वारा समावर्तन-आदरसत्कार किया जाय वह समावर्तनीय गुरु कहा जाता है इहां पर अपादान पंचमी कारको प्रत्यय है। तथा करण और अधिकरणमें जो युद प्रत्यय कहा गया है वह कर्म आदि कारकोंमें भी होता है जिसतरह जो काटे वह निरदन-दांतरा यहां पर कर्ममें प्रत्यय है जिससे रेच (दस्त) होजावे वह प्रस्कंदन विरेचन कहा जाता है यहां अपादान कारक में युट् प्रत्यय है। . अथवा भावसाधना ज्ञानादिशब्दास्तत्त्वकथनादात्रस्य करणव्यपदेशवत् ॥२८॥ अथवा तृण आदिको न भी काटनेवाला दांतरा जिस समय उदासीनरूपसे जुदा पड़ा रहता है । उस समय "यद्यपि वह भावसाधन है क्योंकि उसमें काटनेकी सामर्थ्य है। काट नहीं रहा है तो भी है वह नाम मात्रसे करण कहा जाता है उसी प्रकार जानना देखना और आचरण करनारूप अपनी क्रियाओंको न करनेवाला ज्ञान दर्शन और चारित्र जिस समय उदासीन रूपसे आत्मामें स्थित है उस समय वे नाम मात्रसे करण कहे जाते हैं वास्तवमें भावसाधन हैं क्योंकि उनमें करनेकी शक्ति है क्रिया हूँ को वे कर नहीं रहे हैं इहां पर ज्ञान दर्शन चारित्र स्वरूप मोक्ष मार्ग है । तथा ज्ञानादिकी जाननारूप हूँ ज्ञान, देखनारूप दर्शन, आचरण रूप चारित्र इस प्रकार भाव साधन व्युत्पत्ति है क्योंकि भावसाधनका अर्थ स्वस्वरूप सिद्ध करता है यहां व्युत्पचिसे स्वस्वरूप सिद्ध होता है इसलिये यहां पर कर्ता आदि किसी कारकका व्यवहार नहीं किन्तु जहां पर क्रियाकी अपेक्षा व्युत्पचि है जिस तरह-जिसके द्वारा जाने वा जो जाने वह ज्ञान जिसके द्वारा देखे वा जो देखे वह दर्शन जिसके द्वारा आचरण करे वा जो आचरण करे वह चारित्र वहां पर कर्ता करण आदिका व्यवहार होता है। इस रीतिसे जब ज्ञान आदि ५० AAAAAAAAAE - -
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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