________________
I
अध्याक
SABIESEGISAPASRADIRECIRCSAREERBALA
आत्माके प्रदेशोंकी हलन चलन रूप क्रियाका नाम योगप्रवृचि है वह वीर्यलब्धि स्वरूप ही है | 5 | क्योंकि जिस योगके द्वारा आत्मामें हलन चलन होगा उस योगके योग्य वीर्यका रहना आत्मामें आव-19
श्यक है और उस वीर्यलब्धिको ऊपर क्षायोपशमिक भाव बता दिया गया है तथा कषायको औदयिक ६ हू| भावों में गिनाया गया है। उस वीर्यलब्धि और कषायोंसे भिन्न लेश्या कोई पदार्थ नहीं फिर उसका सूत्र
में पृथक् उल्लेख करना व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। कषायके उदयकी तीव्र और मंद अवस्थाकी अपेक्षा कषाय और लेश्याओंमें आपसमें भेद है इसरोतिसे जब कषाय और लेश्या भिन्न भिन्न पदार्थ सिद्ध है है तब औदायक भावोंमें लेश्याओंका पृथक्पसे गिनाना अयुक्त नहीं।
वह लेश्या कृष्ण नील कपोत पीत पद्म और शुक्ल के भेदसे छह प्रकारकी है । यद्यपि लेश्या एक ही | पदार्थ है तथापि आत्माके परिणामकी विशेष अशुद्धिकी अपेक्षा उसके कृष्णलेश्या आदि व्यावहारिक |
नाम हैं अर्थात् जहांपर आत्मपरिणामों में हद दर्जे की कालिमा रहेगी वहांपर कृष्णलेश्या यह व्यवहार | होगा।जहांपर उससे कुछ कम कालिमा रहेगी वहांपर नीललेश्या व्यवहार होगा। जहांपर उससे भी कम रहेगी वहांपर कपोतलेश्या, उससे भी कम रहनेपर पीतलेश्या उससे भी कम रहनेपर पालेश्या और बहुत कम रहनेपर शुक्ललेश्या यह व्यवहार होगा। शंका
उपशांतकषाय गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती और सयोगकेवलियोंके शुक्ललेश्या होती
AHARGEOGANSGERMERCISHERes
१। इसका चित्रमय दृष्टांत जगह जगह मंदिरों में वर्तमानमें दीख पडता है । चित्रमें छह लेश्याओंके स्थान पर छै मनुष्य रवखे गये हैं और एक फलसंयुक्त वृक्ष बनाकर फलों के खानेकेलिये उन छहो मनुष्यों के उत्तरोचर कालिमाकी कमीको लिये हुऐ जुदे दे भावोंका दिग्दर्शन कराया गया है।