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________________ GG अध्याय SCHECOREGACTERIAGECHECRETABIRRESOREGISTRIBAR 8 और उसका अर्थ जीवोंका मारना और स्पर्श रस आदि इंद्रियों के विषयोंमें राग और द्वेषका रखना ( है। अर्थात् आत्मामें असंयत भावके उदयसे जीवोंके मारनेमें और स्पर्श रस आदि इंद्रियों के विषयों में हूँ सदा राग और द्वेष बना रहता है। उसकी निवृचि नहीं होती।। कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्धः ॥७॥ अनादिकालसे कमौके पराधीन आत्माके सामान्य रूपसे समस्त कर्मोंके उदय रहनेपर असिद्धत्व है पर्याय होती है। उनमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानको आदि लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानपर्यंत जीवोंके आठो कोंके उदयसे असिद्धत्व भाव होता है। उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवोंके मोह६ नीय कर्मोंके सिवा सात कोंके उदयसे आसद्धत्वभाव होता है और सयोग एवं अयोग केवलोके वेद नीय आयु नाम और गोत्र इन चार अघातिया काँके उदयसे आसिद्धत्व भाव होता है इसप्रकार कर्मसामान्यके उदय रहनेपर असिद्धत्वभावके होनेपर वह औदयिक भाव है। कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या ॥८॥ क्रोध आदि कषायोंके उदयसे रंगी हुई जो मन ववन और कायरूप योगोंकी प्रवृत्ति है उसका | नाम लेश्या है । वह लेश्या द्रव्यलेश्या और भावलेश्याके भेदसे दो प्रकारकी है। यहांपर आत्माके भावों का प्रकरण चलरहा है इसलिये सूत्रमें जो लेश्या शब्द है उससे आत्माके भावस्वरूप भावलेश्याका ही ग्रहण है द्रव्यलेश्याका नहीं क्योंकि जिन कर्मोंका विपाक पुद्गलद्रव्यके अंदर होता-अर्थात् शरीर आदि % पुद्गलद्रव्यको फल भोगना पडता है उन पुद्गलविपाकी कर्मों के उदयसे द्रव्यलेश्याकी उत्पत्ति होती है इस लिये द्रव्यलेश्या आदिक भाव न होनेके कारण उसका ग्रहण नहीं । शंका--- RFAGARSCALERIECRETRE55 ५४७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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