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________________ अध्याय PNBARACTESCALECISFASHRE प्रथक् रूपसे त्रिशब्दका उल्लेख नहीं किया जाता तो एक ही त्रिशब्दके रहनेसे उपर्युक्त क्रमबद्ध अर्थ स्पष्ट रूपसे सिद्ध नहीं होता इसलिये उक्त क्रमिक अर्थके प्रतिपादनके लिये त्रिशब्दका दो बार उल्लेख करना सार्थक है । शंका यथाक्रमवचनं ज्ञानादिभिरानुपूर्व्यसंबंधार्थ ॥२॥ ज्ञान चार प्रकारका अज्ञान तीन प्रकारका दर्शन तीन प्रकारका लब्धि पांच प्रकारको है इस रूपसे है ज्ञान आदि और चार संख्याओंका ऊपर क्रमसे संबंध लगाया गयामाना है परंतु सूत्रमें यथाक्रम शब्दके पाठ रहने पर ही वैसा अर्थ हो सकता है । वह यथाक्रम शब्द सूत्रमें पढा नहीं गया इसलिये उपर्युक्त क्रम ठीक नहीं माना जा सकता । सो ठीक नहीं । यदि कोई शब्द किसी सूत्रमें न होतो पूर्व सूत्रसे उसकी ॐ अनुवृत्ति कर ली जाती है । यद्यपि इस सूत्रमें यथाक्रम शब्दका उल्लेख नहीं है तथापि द्विनवाष्टदशेसादि, ६ पूर्व सूत्रमें उसका पाठ है इसलिये उसकी इप्त सूत्रमें अनुवृचि आ जाने पर उपर्युक्त क्रमिक अर्थमें बाधा , नहीं पहुंच सकती। किस कर्मके क्षय और किस कर्मके उपशमसे क्षायोपशमिक भाव होता है वार्तिक है कार इसका खुलासा करते हैं सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावः ॥३॥ . स्पर्धकोंके दो भेद माने हैं एक देशवाति स्पर्धक, दूसरा सर्वघातिस्पर्धक । जिस समय आत्मामें सर्वघाति स्पर्धकका उदय रहता है उससमय अंशमात्र भी आत्मिक गुणकी प्रकटता नहीं रहती इसलिये , उसके उदयका सर्वथा अभाव हो जाना क्षय है और उसी सर्वघाती स्पर्धकोंकी शक्तिका अप्रकटतासे * उदयमें न आकर जो सचामें स्थित रहना है उसका नाम उपशम है । इसप्रकार सर्वघाति स्पर्धकोंका PISRHISTOASTRIOTRASTRASTROTARIORRETURNOR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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