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________________ रा०रा० भाषा ५११ है परंतु उतने लंबे चोडे सूत्रकी जगहपर 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिकाः" ऐसा सूत्र वनाना ठोक था । ऐसे सुत्रके बनाने में दो जगह जो दो शब्द कहने पडे हैं वे भी न कहने पडते वडा भारी लाघव होता जो कि सूत्रकारोंके मतमें महान लाभ माना गया है इसलिये वैसा लम्बा चौडा सूत्र नहीं बनाना चाहिये सो ठीक नहीं । औपशमिकक्षायिको भाव मिश्रश्रेत्यादि जैसा सूत्रकारने सूत्र पढा | है उसमें चशब्दसे पहले कहे गये औपशमिक और क्षायिक भावोंका अनुकर्षण होता है और उससे औपशमिक और क्षायिक भावोंकी मिली हुई अवस्था मिश्रभाव लिया जाता है किंतु अब वैसा सूत्रन कर यदि औपशमिकक्षायिकमिश्रेत्यादि द्वंद्वगर्भित सूत्र किया जायगा तो चशब्दके अभावमें | औपशमिक और क्षायिकका अनुकर्षण न होने पर औपशमिक और क्षायिककी मिली हुई अवस्था तो मिश्रभाव कही नहीं जायगी किंतु उनसे भिन्न अन्य ही दो भावोंकी मिली हुई अवस्था मिश्र कही | जायगी जो कि विरुद्ध है इसलिये द्वंदगर्भित सूत्र न कह कर जैसा सूत्रकारने सूत्र बनाया है वही ठीक है और उसमें चशब्दसे औपशमिक और क्षायिक भावोंकी मिली हुई अवस्था ही मिश्रभावका अर्थ लिया जा सकता है अन्यका नहीं । यदि यहां पर यह शंका की जाय कि क्षायोपशमिकग्रहणमिति चेन्न गौरवात् ॥ २० ॥ औपशमिक और क्षायिक भावोंकी मिली हुई अवस्था ही मिश्रभावका लिया जाय इस बातकी रक्षार्थ ही औपशमिकक्षायिकमित्यादि द्वंद्वगर्भित सूत्र कहनेका निषेध किया जाता है परंतु यदि मिश्रकी जगह क्षायोपशमिक कह दिया जायगा तो उपर्युक्त आपत्ति नहीं हो सकती इसलिये मिश्र शब्द के स्थानपर क्षायोपशमिक शब्दका उल्लेखकर द्वंद्वगर्भित ही लघुसूत्र करना ठीक है किंतु सूत्रका अध्याय २ ५११
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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