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________________ अध्याय अनवद्यनिखिलविद्वजननुतविद्यः-निखिलाः सकला विद्वजना निगमदार्शनः, तः, अनवरतं निरव च्छिन्नं नुता प्रस्तुता स्याद्वादविद्या यस्य सः; पुनः कथंभूतः प्रशस्तजनहृद्यः-प्रशस्ता जनाः सम्यग्दर्श- 18 |६|| नोपेता भव्याः, तेषा मनोहारी स्ववचनपीयूषेण संदेहादिहालाहलस्य निरावृतत्वात् । इस श्लोकसे आशीर्वादात्मक नमस्कार किया गया है। इसके दो अर्थ हैं। उसमें एक अर्थसे भगवान ऋषभदेवको आशीर्वाद दिया गया है और दूसरे अर्थसे वार्तिककार श्रीअकलंकदेवको आशी. वादका विधान है। पहिला अर्थ इस प्रकार है श्रीनाभिराजाके उत्कृष्ट पुत्र, सदा ही इंद्र आदिसे स्तुत, अवधिज्ञान वा केवल ज्ञानके स्वामी, | | गौतम आदि गणधर और भरत आदि भव्योंके प्यारे, दोषरहित आदि ब्रह्मा, श्रीऋषभदेव भगवान | सदा जयवंत रहो । दूसरा अर्थ-हब राजाके कनिष्ठ किंतु उत्कृष्ट पुत्र, सदा बडे बडे विद्वानोंसे स्तुत, ॥ स्याद्वाद विद्या निधान, सम्यग्दर्शनके धारक, भव्य जनोंके प्यारे एवं सूत्रोंके अर्थको वृद्धिंगत करनेइ कारण ब्रह्मा श्रीअकलंकदेव चिरकाल जयवंते प्रवर्ती। RUPEPPEDGEAUGUSARBARAHIBAHA DISTRIEBEOBABAEROBBEAUTERUSH इसप्रकार श्रीतत्त्वार्थराजवार्तिकालंकारकी भाषाटीकामें प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥ ५०२
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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