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________________ छABAD-1565 यहां पर पहिला अध्याय समाप्त होता है इसलिये उसमें वर्णन किए गये विषयोंका सामान्यरूपसे 5 यहां स्मरण कराया गया है कि इस प्रथमाध्यायमें ज्ञान दर्शन तत्त्व और नयों के स्वरूप वा लक्षणोंका अध्या वर्णन किया गया है और सन्निकर्ष आदिकी प्रमाणताके पारहारपूर्वक ज्ञानकी प्रमाणता बतलाई गई है। जीयाचिरमकलंकब्रह्मा लघुह(व्य)व्यनृपतिवरतनयः। अनवद्यनिखिलविद्वजननुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्यः॥१॥ इसी ग्रंथके अन्य (श्रीतत्त्वार्थराजवार्तिक) भाषाटीकाकार पं० पन्नालालजी दूनीवालोंने इसपद्यकी * संस्कृत टीका लिखी है उसे हम यहां उद्धृत किए देते हैं| न कलंका अष्टादशदोषविशेषा यस्य स अकलंकः, वृदयति वर्धयति प्रजा इति ब्रह्मा । अकलं. ५ कश्चासौ ब्रह्मा च अकलंकब्रह्मा-श्रीऋषभदेवः । एतस्य ब्रह्मत्वं कर्मभूमिप्रयोगप्रदर्शकत्वेन बोध्यं, ५ आदिब्रह्मा इति यावत् । म चिरंजीयात् । धर्मस्यानादिनिधनत्वेऽपि उपस्थितावपसर्पिणीप्रारंभे प्रथमर. लत्रयस्वरूपधारकत्वेन प्रवर्तकत्वेन च तदीयागतसंतानादस्माकं निजस्वरूपोपलब्धिदायकवनासाधार- है। है णोपकारकर्तृत्वं विवक्षितं । अत एव चिरंजीयादिति पदस्य संगतिः । कथंभूतः स लघुहवनृपतिवरत. है नयः। अत्र हव्वशब्दः प्राकृतः स च कस्यचिन्नृपतिविशेषस्य वाची स तु द्वितीयार्थे ग्राह्यः । अत्र तु | प्रकृतिभूतत्वात् हव्यशब्दग्रहः, तथा च लघुहव्यनृपतिवरतनय इति जातं । अस्यार्थः-हव्यशब्दस्य 9 भोजनवाचकता। हु दानादानयोः इति धातुना निष्पन्नत्वात् "हव्यकव्ये दैवत्र्ये अन्ने" इति लिंगानु जान पडता है । यदि तवका अर्थ सरूा किया जाय तो जुदा पद रखनेसे भी कोई विरोध नहीं पाता है । ज्ञान दर्शनके स्वरूपमें तचोंका स्वरूप गर्षित हो जाता है । इस दृष्टिसे 'तत्वं' भी ठीक हो सकता है। SHRISHAIBFSAKASIA + 5 EAUGERS.
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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