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________________ अध्याय तथा संतिष्ठते अवतिष्ठते इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमाहता उपमर्गस्य धातुमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेयः । तिष्ठति प्रतिष्ठते इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात् ततः कालादिभेदाद्भिन्न | का एवार्थोऽन्यघातिप्रसंगादिति शब्दनयः प्रकाशयति । - धात्वर्थसंबंधी प्रत्यय जिस कालमें कह गए हैं उनसे भिन्न कालमें भी होते हैं ऐसे अर्थवाले सूत्रका & निर्माणकर विश्वदृश्वास्य पुत्रोजनिता, भाविकृत्यमासीत्' यहांपर जो भविष्यत कालके कार्यको भूतकाल है में माननेसे कालका भेद रहनेपर भी भाविष्यत् और अतीत कालको वैयाकरण एक मानते हैं और दोनों कालोके अभेदमानने में यह हेतु देते हैं कि संसार में वैसा व्यवहार होता है। परंतु उनका व्यवहारके आधीन दोनों कालोंका अभेद मानना युक्त नहीं। क्योंकि यदि कालोंके स्पष्टरूपसे भेद रहनेपर भी पदार्थों को शा एक मान लिया जायगा तो रावण तो भूतकालमें हो चुका, शंख चक्रवर्ती आगे होनेवाला है, यहांपर का भी भविष्यत् और भूत दोनों कालोंका भेद है इसलिये यहां पर भी रावण और शंख दोनों पदार्थों को % &ा एक मान लेना चाहिये । यदि यहांपर यह कहा जाय कि 'आसीद्रावणो राजा' रावण हो चुका, 'शंख- * चक्रवर्ती भविष्यति' शंखचक्रवर्ती आगे होगा यहांपर रावण और शंख शब्द भिन्न भिन्न विषयवाले होनेसे है | एक नहीं हो सकते इसलिये रावण और शंखका एक मानना बाधित है । सो ठीक नहीं। 'विश्वदृश्वा' । । यहां पर दृश्वा शब्दका अर्थ अतीतकाल है और 'जनिता' शब्दका अर्थ भविष्यत्काल है। दोनों ही ७ शब्दोंका आपसमें भिन्न भिन्न अर्थ है इसलिये भविष्यत्कालमें होनेवाला पुत्र अतीतकालमें हुआ' नहीं माना जा सकता । यदि यहांपर फिर यह कहा जाय कि अतीतकालमें भविष्यतकालका आरोपकर दोनोंको एक मानकर भविष्यत्काल में होनेवाला पुत्ररूप कार्य अतीतकालमें हुआ माना जा सकता है MARRIERSAREIO ॐ
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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