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________________ तरा० भाषा १६५ Utrectect वह तो अनेक है क्योंकि नीलरंगके परमाणु जुदे २ अनेक हैं इसलिये उनका उदाहरण देकर एक सचा || अनेक पदार्थोके साथ संबंध करनेवाली नहीं सिद्ध हो सकती। यदि यहांपर भी यह कहा जाय कि नीली असाव द्रव्य अनेक है इसलिये उसका उदाहरण माननेपरनभीएकसत्ता अनेक पदार्थों से संबंध करनेवाली सिद्ध* हो परंतुनीली द्रव्यमें जो नीलत्व जाति है वह तो एक है और एक ही वह अनेक नीली द्रव्य पदार्थों से संबंध करनेवाली है इसलिये नीलत्व धर्मको उदाहरण मान एक भी सत्ता अनेक पदार्थोंसे संबंध करनेवाली सिद्ध हो सकती है। सो भी ठीक नहीं । नीलस जाति ही संसारमें सिद्ध नहीं जिसे उदाहरण माना| जाय जो दोष सचा जातिमें दिये गये हैं वे सब नीलव जातिमें भी आते हैं । इसरीतिसे सत्ता एक ५ अखंड पदार्थ है और वह द्रव्यादि पदार्थों से भिन्न है, ऐसा मानना बाधित है। अतो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः॥६॥ जिस पदार्थको संग्रह नयने विषय कर लिया है उसका जो विधिपूर्वक ग्रहण करना है उसका नाम | व्यवहार है । संग्रहके लक्षणमें जो विधि शब्द है उसका अर्थ-जिस पदार्थको संग्रह नयने विषय किया है | उसीके अनुकूल व्यवहारका होना है। उसका खुलासा इसप्रकार है-संग्रहनय विशेषरूपकी अपेक्षा न कर सामान्य रूपसे पदार्थोंको विषय करता है परंतु विशेषका विना अवलंबन किए व्यवहार हो नहीं सकता इसलिये सामान्यरूपसे जिस पदार्थको संग्रहनयने विषय किया है उससे संसारका व्यवहार न || हो सकनेके कारण व्यवहार नय माना गया है। जिस तरह-संग्रहनयका विषय सत् पदार्थ है किंतु सत् शब्दसे संसारका व्यवहार हो नहीं सकता इसलिये जो सत् है वह द्रव्य और गुण है यह व्यवहार है नयसे मानना पडता है। तथा संग्रहनयका विषय द्रव्य है उसके जीव और अजीव भेद माने बिना अURBABA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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