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________________ रा०रा० २९ | हो सकता, द्रव्यस्वरूप ही है । तब जो समवायको एक संबंध और द्रव्यसे भिन्न पदार्थ माना है वह मिथ्या है । तथा यह भी वात है कि घट आदि पदार्थों का प्रकाश करनेवाला दीपक जिसतरह अपने स्वरूपसे प्रसिद्ध और घटादिसे भिन्न सबके प्रत्यक्षगोचर है उसतरह द्रव्यमें द्रव्यकी वा गुण आदिकी सताका निश्चय करानेवाला समवाय अपने किसी भी स्वरूपसे प्रसिद्ध नहीं और द्रव्य आदिसे भिन्न प्रत्यक्षरूप से भी किसीको दीख नहीं पडता इसलिये दीपक के समान कभी समवाय पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती । गुण कर्म सामान्य और समवाय पदार्थोंसे द्रव्य पदार्थ भिन्न है यह तो कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि गुण आदि स्वरूपं ही द्रव्य है यदि गुण आदि उससे भिन्न मान लिये जायगे तो द्रव्य | पदार्थ ही न सिद्ध हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि गुण कर्म आदि द्रव्यके विशेष नहीं और न 'उनसे द्रव्य की प्रसिद्धि है । द्रव्यकी प्रसिद्धि करनेवाला तो और ही कोई विशेष है और उस विशेष से द्रव्यका गुण कर्म आदि से संबंध है सो भी ठीक नहीं क्योंकि गुण कर्म आदिसे भिन्न स्वतः सिद्ध तो कोई द्रव्यका विशेष गुण दीख नहीं पडता है यदि हो तो उसका नाम लेना चाहिये । विना बतलाये उसकी सिद्धि हो नहीं सकती । इसलिये यह बात विलकुल निश्रित हो चुकी है कि गुण कर्म सामान्य और समवाय ये द्रव्यके परिणाम हैं परिणाम परिणामीका अभेद रहता है । जब समवाय परिणाम है तब वह द्रव्य स्वरूप ही है उससे भिन्न नहीं इसलिये समवाय संबंध द्रव्यसे जुदा एक और नित्य पदार्थ | है यह जो नैयायिक और वैशेषिकों का कहना है केवले कल्पनामात्र है । और भी यह बात है किविशेषपरिज्ञानाभावात् ॥ १९ ॥ यह साधारण बात है कि जिस एक पुरुषने पिता और पुत्र दोनोंको देखा है वही यह कह सकता L भाषा २९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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