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________________ - GESPICESSISAIDASIANSECTSANSAR municaGGAnamonline है वह वहिरंग सत्चा कहनी पडेगी इसरीतिसे यदि सत्ताके पहिले ही द्रव्य आदिमें 'सत् सत् यह प्रतीति और उनका 'सत्' यह नाम माना जाता है तो अंतरंग और वाह्य के भेदसे दो प्रकारकी सचा माननी पडती है। यदि यहां पर यह कहा जाय दो सचा मान ली जाय तो भी कोई हानि नहीं ? सो अयुक्त है "सलिंगाविशेषाद्विविशेषलिंगाभावाचैको भावः" अर्थात् सबमें 'सत् चिन्ह समान है-सभी पदार्थोंकी 'सत् सत्' रूपसे प्रतीति होती है और उनका आपसमें भेद करनेवाला कोई विशेष लिंग है नहीं इसलिये है संसारमें एक ही सत् पदार्थ है, इस (आपके) सिद्धान्त वचनका व्याघात हो जायगा क्योंकि यहां इम | वचनसे एक ही सचा मानी गई है और ऊपर दो प्रकारकी सचा सिद्ध होती है इसलिये पूर्वापर विरोध है इस रीतिसे सचासंबंधसे पहिले द्रव्य आदिमें 'सत् सत्' यह प्रतीति और उनका 'सत्' यह नाम नहीं। सिद्ध हो सकता। यदि कदाचित् यह कहा जाय कि सचासंबंधसे पहिले उनमें सत् सत' यह प्रतीति वा 18 उनका 'सत्' नाम नहीं है किंतु सत्ता संबंध के बाद है तो जबतक उनके साथ सचाका संबंध न होगा | तब तक द्रव्य आदिकी 'सत् सत्' यह प्रतीति और 'सत्' यह नाम भी न होगा फिर जिसप्रकार गदहे हैं का सींग संसारमें असत पदार्थ है उस प्रकार सचासंबंधसे पहिले द्रव्य आदि पदार्थोंको भी असत् | # मानना पडेगा। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि हमारे मतमें गुण गुणी जाति द्रव्य आदिका समवाय सम्बंध माना है और वह नित्य है इसलिये 15 उससे द्रव्य आदि पदार्थों में 'सत सत' यह प्रतीति और उनका 'सत' यह नाम निर्वाधरूपसे व्यवहार गोचर हो सकते हैं द्रव्य आदि पदार्थों के साथ सत्त्व द्रव्यत्व आदिका अभेद संबंध मानना निरर्थक है? सो ठीक नहीं। समवायसंबंध किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं हो सकता यह वात पहिले विस्तृतरूपसे | ASTRIBPSIRSADARSHURARE A
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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