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SARKAR-SAHASRANAGAR
मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि ॥९॥ ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते। ।
चशब्दमंतरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्त्वतः॥१०॥ मिथ्याज्ञानं विशेषः स्यादस्मिन्पक्षे विपर्ययं। ...
संशयाज्ञानभेदस्य चशब्देन समुच्चयः ॥१९॥श्लोकवार्तिक पृष्ठ २५५। . मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान ही विपरीत ज्ञान हैं अन्य नहीं, ऐसा मतिश्रुताः वधयः' इत्यादि सूत्र में निर्धारण है इसलिये विपरीत ज्ञानोंमें मनःपर्यय और केवलज्ञानका ग्रहण नहीं | | क्योंकि मिथ्यादर्शनके कारणोंके सर्वथा नष्ट हो जानेपर सम्यक्त्व गुणकी प्रकटतासे जिस समय आत्मा || विशुद्ध हो जाता है उससमय मनापर्यय और केवलज्ञानका आत्मामें उदय होता है-विना सम्यक्त्व गुण | है के उदय नहीं हो सकता इसलिये मिथ्यात्वके संबंधसे सर्वथा दूर रहने के कारण मनःपर्यय और केवल है। ज्ञान कभी मिथ्या नहीं हो सकते। उन दोनों ज्ञानोंमें जिस समय दर्शन मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय
हो जाता है और चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम हो जाता है उस समय आत्मामें मनःपर्ययज्ञानका उदय होता है इसलिये मिथ्यात्वके साथ संबंध न रहने के कारण वह मिथ्याज्ञान नहीं हो सक्ता तथा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय इन चारघातिया काँके सर्वथा नष्ट हो जानेपर आत्मामें केवलज्ञानका उदय होता है । उससमय परिपूर्ण विशुद्धता केवलज्ञानमें प्रगट हो जाती है इसलिये वह भी | मिथ्याज्ञान नहीं कहा जा सकता। परंतु मतिज्ञान आदि तीन ज्ञान जिससमय मिथ्यात्वके साथ आत्मा |
१-मनापयशान छठे गुणस्थानमें भी हो जाता है इसलिये यह प्रत्याख्यानादि कषायोंके उपचमकी अपेक्षासे कथन है।