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________________ वा माषा ४३७ SASRAEROBARBIEALERISPEECHERSPERIES REGHRELIERana निश्चय होता है और पर मनुष्योंको उपदेश दिया जाता है एवं जिसतरह अवधिज्ञानसे रूपी पदार्थोंका निश्चय होता है उसी प्रकार विभंगज्ञानसे भी होता है. इस प्रकार मतिज्ञान आदि तीनों सम्यग्ज्ञान एवं मत्यज्ञानादि तीनों मिथ्याज्ञानोंकी पदार्थोंके ग्रहण करनेमें जब अव्यभिचारीरूपसे समानता है तब मतिज्ञान आदि तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं हो सकते इसलिए 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च' इस सूत्रसे जो उन्हें मिथ्याज्ञान बतलाया है वह ठीक नहीं। इस बातका समाधान सूत्रकार देते हैं सदसतोरविशंषायदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥३२॥ . . . उन्मच पुरुषके समान सत् असत्रूप पदार्थोंके विशेषका ज्ञान न होनेके कारण स्वेच्छारूप यद्वा तद्वा जाननेके कारण मति आदि तीन मिथ्याज्ञान हैं। अर्थात्-जिसप्रकार शराबी पुरुष मायाँको माता और माताको भार्या समझता है यह उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है परन्तु किसी समय वह भार्याको भार्या । और माताको माता कहता है तो भी उसका वह जानना सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता क्योंकि उसे भार्या 81 और माताके भेदका यथार्थ ज्ञान नहीं उसीप्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे सत और असत् पदार्थका का l यथार्थ ज्ञान न होनेके कारण कुमति कुश्रुत और कुअवधिज्ञान भी मिथ्याज्ञान हैं। सच्छब्दस्यानेकार्थसंभवे विवक्षातः प्रशंसाग्रहणं ॥१॥ __ऊपर 'सत्' शब्दके अनेक अर्थ बतला आए हैं उनमें यहाँपर प्रशंसार्थक सत् शब्दका ग्रहण है अर्थात् सत् शब्दका अर्थ प्रशस्त ज्ञान है और असत्का अप्रशस्त ज्ञान है । जिस तरह उन्माद-दोषसे इंद्रिय और बुद्धिके विक्षिप्त हो जानेसे उन्मच पुरुषको विपरीत रूपसे पदार्थ भासमान होने लगते हैं लिए गाय और घोडाके भेदका वा लोहा और सोनाके भेदका यथार्थ ज्ञान न होने के कारण स्वेच्छा. BACHEKACES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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