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________________ मति मनःपर्ययज्ञानी जानता है। किंतु यह नियम है कि जो मनुष्य व्यक्तमना है-अच्छी तरह चिंतवन - अध्याय कर जिन्होंने खुलासा रूपसे मनसे पदार्थों का निश्चय कर लिया है उन्हीके द्वारा विचारे गए पदार्थोंको ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जानता है किंतु जो अव्यक्तमना है-अच्छी तरह चिंतवन कर जिन्होंने खुलासा रूपसे पदार्थोंका निश्चय नहीं किया है उनके द्वारा मनसे विचारे हुए पदार्थोंको ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी नहीं जानता। यह द्रव्य और भावकी अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानका विषय है। कालकी अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जघन्य रूपसे अपने वा अन्य जीवोंके दो तीन भवोंका जाना आना जानता है और उत्कृष्ट रूपसे अपने वा अन्यके आठ सात भवोंका जाना आना जानता है । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य रूपसे गन्यूतिपृथक्त्व-तीन कोशसे ऊपर और आठ कोशके भीतरके पदार्थों को जानता है उससे बाहिरके पदार्थोंको नहीं और उत्कृष्ट रूपसे योजन पृथक्त्व-तीन कोशसे ऊपर और नव कोशके नीचे पदार्थों को जानता है उससे बाहिरके पदार्थोंको नहीं। द्वितीयः षोढा ऋजुवक्रमनोवाकायविषयभेदात् ॥१०॥ ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ ऋजुवाकृतार्थज्ञ २ ऋजुकायकृतार्थज्ञ ३ वक्रमनस्कृतार्थज्ञ ४ वक्रवाककृताथंज्ञऔर वक्रकायकृतार्थज्ञ ६ इस प्रकार विपुलमति मनःपर्ययज्ञान छह प्रकारका है। विपुलमति मन:पर्ययज्ञानसे परके मनमें रहनेवाले ऋजुवक-सीधे टेडे, सब प्रकारके रूपी पदाथोंका ज्ञान होता है। अपने और परके जीवित मरण सुख दुःख लाभ और अलाभ आदिका भी ज्ञान होता है तथा जिस १-'निसंख्यातोऽधिका नवसंख्यातो न्यूना संख्या पृथक्त्वं सर्वार्थसिद्धिकी रिपसी पृष्ठ सं०७२ । -न शब्दोंके अर्थ ऊपर लिखे अनुसार समझ लेना चाहिये।
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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