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________________ इस तरह दो प्रकारसे होता है । जहाँपर क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञानके वाह्य उपकरणस्वरूप | श्रीवृषभ स्वस्तिक नंद्यावर्त आदि चिह्नों में किसी एक चिह्नकी प्रकटता रहती है वहांपर उसी एक चिह्नME स्वरूप उपयोगस्वरूप उपकरणमें रहनेके कारण अवधिज्ञान क्षेत्रमें रहनेवाला समझा जाता है और जहां १६|| श्रीवृषभ स्वस्तिक आदि अनेक शुभ चिह्नोंकी प्रकटता रहती है वहाँपर अनेक क्षेत्रमें रहनेवाला ई. कहा जाता है । शंका ___यदि गुणप्रत्यय अवधिज्ञानको शंख स्वस्तिक आदि शुभ चिह्नोंकी अपेक्षा करनेवाला मानाजायगा है तो उसे पराधीन होनेसे परोक्ष कहना पडेगा परंतु उसे माना स्वाधीन प्रत्यक्ष है इसलिए यहां विरोध आता है ? सो ठीक नहीं। परपना इंद्रियों में ही रूढि है अर्थात् जो ज्ञान इंद्रियोंके आधीन है-अपनी ४ उत्पत्तिमें इंद्रियोंकी अपेक्षा रखता है वही पराधीन ज्ञान माना जाता है किंतु शंख स्वस्तिक आदि शुभ | | चिह्नोंकी अपेक्षा करनेवाला पराधीन नहीं कहा जा सकता । अवधिज्ञान अपनी उत्पत्तिमें इंद्रियोंकी | अपेक्षा नहीं रखता इसलिए उसके विषयमें पराधीनपनेकी शंका नहीं की जा सकती-यहां यह प्रमाण हूँ वचन भी है-- १-भवपञ्चयगो सुरणिरयाणं नित्थेवि सन्न अंगुत्थो । गुणपचयगो णरतिरियाणं संखादिचिन्हभयो । ३७०॥ भवात्ययकं सुरनारकाणां तीर्यपि सर्वांगोत्थं । गुणपत्यपक नरतिरश्चां शंखादिचिन्दभवं ॥ ३७० ॥ भव प्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकी तथा तीर्थंकरोंके होता है और यह ज्ञान समस्त अंगसे होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान संजी पर्याप्त मनुष्य तथा संज्ञी पर्याप्त तियचोंके भी होता है और यह ज्ञान शंखादि चिन्होंसे होता है। भावार्थ-नाभिके ऊपर शंख पन बज स्वस्तिक कलप आदि जो शुभ चिन्ह होते हैं उस जगहके प्रात्ममदेशोंमें होनेवाने अवपिमानावरण कर्मके क्षयोपशमसे गुणप्रत्यार अवधिज्ञान होता है किंतु भवप्रत्यय अवधि सम्पूर्ण आत्मप्रदेशोंसे होता है। गोम्मटमार नीवाट। SHINDEmisi+BRSHASTROHSASAT SHEGAOGRASHARMACIRBASHE L
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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