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त०रा०
भाषा
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ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है वहां पर श्रुतज्ञान से श्रुतज्ञान होनेपर भले ही श्रुतज्ञानका व्यवधान होवे तो भी वह मतिज्ञानपूर्वक ही माना जाता है, कोई दोष नहीं ।
भेदशब्दस्य प्रत्येकं परिसमाप्तिर्मुजिव ॥ ११ ॥
"देवदत्त जिनदत्त गुरुदत्त भोजन करें' यहाँपर भोजन क्रियाका जिस प्रकार हरएकके साथ संबंध है अर्थात् देवदत्त भोजन करें जिनदच भी भोजन करें और गुरुदत्त भी भोजन करे वहां यह अर्थ लिया जाता है उसी प्रकार यहां भी भेद शब्दका संबंध दो अनेक और द्वादशके साथ है अर्थात् श्रुतज्ञानके दो अनेक और बारह भेद हैं ।
तत्रांगप्रविष्टमंगवाद्यं चेति द्विविधमंगप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदं बुद्ध्यतिशयार्द्धयुक्त
गणधरानुस्मृतग्रंथरचनं ॥ १२ ॥
भगवान अहंत सर्वज्ञरूपी हिमवान पर्वतसे निकली हुईं वचनरूपी गंगाके अर्थरूपी निर्मल जल से जिनके अंतःकरण धोये गये हैं ऐसे बुद्धिके अतिशय एवं ऋद्धियुक्त गणधरदेवने उन्हीं सर्वज्ञकी वाणीका स्मरण रखते हुए उसी अभिप्राय के अनुसार ग्रंथोंकी रचना की, वही द्वादशांगरूप रचना अंगप्रविष्टके नाम से प्रख्यात हुई है- अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकारका है उसमें अंगप्रविष्ट आचार १ सूत्रकृत २ स्थान ३ समवाय ४ व्याख्या प्रज्ञप्ति ५ ज्ञातृधर्मकथा ६ उपासकाध्ययन ७ अंतकृद्दश ८ अनुत्तरोपपादिकदश ९ प्रश्नव्याकरण १० विपाकसूत्र ११ और दृष्टिवाद १२ ये बारह भेद हैं और वह बुद्धिका अतिशय रूप ऋद्धिसंयुक्त गणधरोंसे अच्छी तरह विचारे गये ग्रंथोंकी रचनास्वरूप है । आचार आदि अंगों का विशेष व्याख्यान इसप्रकार है
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अध्याय
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