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________________ ४०१० भाषा ३३७ रक्खे हुए पदार्थ के पास वह नहीं पहुंच सकता तथा घटका एक ओरका भाग देखते ही समस्त घटका ग्रहण हो जाता है यदि चक्षुको प्राप्यकारी माना जायगा तो जितने भाग के पास वह पहुंचा है उतने ही भागका ग्रहण होना चाहिये परन्तु सो नहीं होता, समस्त घटका वहां ग्रहण होता है दूसरे जो पदार्थ छोटा है वह चक्षुद्वारा बडा भी देखने में आता है जो बडा है वह छोटा दीख पडता है इस प्रकारको धिक ग्राहकता अन्य प्राप्यकारी इंद्रियों में नहीं पाई जाती है क्योंकि प्राप्यकारितामें जो जितना विषय है वह उतने ही को ग्रहण कर सकता है इसलिये चक्षु प्राप्यकारी सिद्ध नहीं हो सकता । तथा यदि यह कहा जाय कि इंद्रियों का अधिष्ठान - रहनेका स्थान बाह्य है इसलिये वे ढके हुए पदार्थको अधिक पदार्थको ग्रहण कर सकतीं हैं इस रीति से चक्षु भी ढके पदार्थका और अधिकका ग्रहण कर सकता है । सो भी ठीक नहीं। जिसको इंद्रियों के रहनेका स्थान कहा जाता है वह द्रव्येंद्रिय है यदि उसे इंद्रियों के रहनेका स्थानमात्र कहा जायगा और इंद्रियोंको उससे सर्वथा भिन्न माना जायगा तो 'किसी कारण से विकार हो जानेपर उसका इलाज करनेसे इंद्रियोंको लाभ नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह रहनेमात्रका स्थान है दूसरे उस स्थानके बंद हो जानेपर भी इंद्रियोंसे पदार्थों का ग्रहण हो सकेगा क्योंकि स्थान उनको विषय ग्रहण करने में प्रतिबंधक नहीं हो सकता तथा यदि बाह्य अधिष्ठान के रहने से ही इंद्रिय पदार्थों के ग्रहण करनेमें समर्थ मानी जायंगी तो मनसे अधिष्ठित इंद्रियां अपने अपने विषयों को ग्रहण करती हैं यह आपका सिद्धांत है परन्तु मनके रहने का कोई बाह्य स्थान है नहीं इसलिये उससे अधि ष्ठित हो इंद्रियां पदार्थों को ग्रहण न कर सकेंगी और न मनसे ही किसी पदार्थका ग्रहण होगा तथा 'मनसे अधिष्ठित हो इंद्रियां अपने अपने विषयोंकों ग्रहण करती हैं' ऐसा कहने से इंद्रियोंका अधिष्ठान मनके ४३ अध्याय १ ३३७ :
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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