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अध्याय
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और कुछ अनुत्कृष्ट दोनों दशा रहती हैं उस समय कुछ हीनता और कुछ आधिकतासे जानने के कारण । चल विचलपना रहता है इसलिये उसप्रकारका अवगृह अध्रुव पदार्थका अवगृह कहा जाता है तथा कृष्ण 7 आदिबहत रूपोंको जानना वा थोडे रूपोंको जानना, बहुत प्रकारके रूपोंको जानना, एक प्रकारके
रूपको जानना, जल्दी रूपको जानना, देरीसे रूपको जानना, अनिःसृत रूपको जानना, निःसृत रूप को जानना, अनुक्त रूपको जानना, उक्त रूपको जानना यह जो चल विचल रूपसे जानना है वह उसी अध्रुवावगृहका विषय है । जिस तरह श्रोत्र और चक्षु इंद्रियकी अपेक्षा बहु बहुविध आदिको अव ग्रहका विषय कहा गया है उसीप्रकार प्राण आदि इंद्रियोंकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए तथा जिस | तरह बहुविध आदिको अवग्रहका विषय माना है उसी तरह ईहा अवाय और धारणा ज्ञानोंका भी विषय मानना चाहिये । शंका
जो इंद्रियां पदार्थसे भिडकर ज्ञान कराती हैं उनका पदार्थके जितने अवयवोंके साथ संबंध रहेगा 8 उतने ही अवयवोंका ज्ञान करा सकती है अधिक अवयवोंका नहीं। श्रोत्र घ्राण स्पर्शन और रसना ये * चार इंद्रियां प्राप्यकारी हैं-मिडकर पदार्थों का ज्ञान कराती हैं इसलिये जितने अवयवों के साथ इनका ,
भिडाव होगा उतनेही अवयवोंका ये ज्ञान करा सकती हैं अधिकका नहीं। अनिःसृत और अनुक्तमें 8 है ऐसा नहीं क्योंकि वहांपर पदार्थों का एक देश देख लेने पर वा कहे जाने पर समस्त पदार्थका ज्ञान माना है है इसलिए श्रोत्र आदि चार इंद्रियोसे जो अनिःसृत और अनुक्त पदार्थों के अवग्रह ईहादिक माने हैं
सो व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। जिसतरह चिउंटी आदि जीवोंका नाक और जिहा इंद्रियके साथ गुड ३२० आदि द्रव्यका भिडाव नहीं रहता तो भी उनके गंध और रसका ज्ञान चिउंटी आदिको हो जाता है
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