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________________ 10 मनका विशेष है यह विशेष अल्पज्ञानियोंके प्रत्यक्ष नहीं इस लिये अभ्यंतर है उसका त्याग सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार जिसके कारण ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं ऐसे द्रव्य क्षेत्र आदि पांच प्रकार के संसारकी सर्वथा निवृत्ति करने के लिये जो उद्यमी है और प्रशस्त ज्ञानी है ऐसी आत्माका जो वचन और शरीर संबंधी (बाह्य) क्रिया विशेषका तथा मन संबंधी ( अंतरंग ) क्रियाविशेषों का त्याग करना है वह सम्यक् चारित्र है, यह पदों के अनुसार अर्थ है । यह सम्यक् चारित्र वीतरागियों के अर्थात् ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्तियों के यथाख्यात नामका उत्कृष्ट है और पांचवें गुगस्थान से दशवें गुणस्थान वालों के न्यूनाधिक भाव से है अर्थात् नीचे न्यून और आगे कुछ अधिक रूपसे विशुद्ध होता चला गया है : ज्ञानदर्शनयोः करणसाधनत्वं, कर्मसाधनश्चारित्रशब्दः ॥ ४ ॥ ৬ जो कार्य किया जा रहा है उसके करनेमें जो अत्यन्त साधक हो - उसके विना कार्य हो ही न सके वह करण है जिसप्रकार देवदत्त कुल्हाडी से लकडी काटता है । यहांपर लकडीका काटना कुल्हाडीके विना नहीं सकता इसलिये कुल्हाडी करण है । जो कार्य कर्त्ताको अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म कहलाता है जिस' प्रकार देवदच भात खाता है वहां पर भात देवदत्तको अत्यन्त इष्ट है । इसलिये भात कर्म है 'कैरणाधि करणयोः' अर्थात् करण और अधिकरणमें युद्ध होता है इस सूत्र से जाननार्थक 'ज्ञा' धातुसे करणमै युद करनेसे ज्ञान और दर्शनार्थक 'दृश' धातुसे करण में युद्ध करने पर दर्शन शब्दकी सिद्धि होती है और उसका यह अर्थ है - जानना और देखना रूप शक्तिकी विशेषता रूप शुद्धिसे आत्मा जिसके द्वारा १ साधकतमं करणः ॥ १३८ ॥ जैनेन्द्रव्याकरण अध्याय १ पाद २ सूत्र । २ कर्त्राप्यं ॥ १४५ ॥ जैनेन्द्रव्याकरण अध्याप १ पाद २ । ३ ज्ञान, दर्शन और चारित्र शब्दकी सिद्धिका प्रकार व्याकरण में देखो । भाषा १६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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