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अध्याय
भाषा
३०७
AMACHACISFREELCONSTABINETRICHESHISHABAR
स्कंधावार-देशमें 'यह वन है और 'यह देश है' ऐसी एक एक प्रकारकी ही सदा प्रतीति होती है। यदि ज्ञानको एकसमयमें एकही पदार्थका ग्रहण करनेवाला माना जायगा तब नगर वन स्कंधावारका ज्ञान ६ ही न हो सकेगा क्योंकि नगर आदि पदार्थ अमक पदार्थों के समूहस्वरूप है और विज्ञान एक समयमें एक ही पदार्थको विषय करता है। इसलिये यदि इसप्रकार समूहात्मक प्रतीति नहीं होगी तो 'यह न-हैं गर है, यह वन और देश है' इसप्रकारका जो संसारमें व्यवहार होता है वह सर्वथा उठं जायगा । इसलिए एकसमयमें एक पदार्थका ग्रहण करनेवाला विज्ञानको न मान अनेकार्थग्राही ही मानना पडेगा। और भी यह बात है
. नानात्वप्रत्ययाभावात् ॥३॥ जो यह मानता है कि ज्ञान एक समयमें एकही पदार्थका ग्रहण करनेवाला है उससे यह पूछना चाहिए कि पूर्वज्ञानके नष्ट होजानेपर उत्तरज्ञानकी उत्पचि होती है अथवा उसके रहते ही उचरज्ञान उत्पन्न हो जाता है ? यदि दूसरे पक्षका आश्रयकर यह कहा जायगा कि पूर्वज्ञानके रहते ही उत्तरज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब 'एकार्थ एकमनस्त्वात्' विज्ञानकी उत्पचिमें मन एक कारण है इसलिए वह एकही
पदार्थको विषय करता है यह जो बौद्धोका कहना है वह बाधित होजायगा क्योंकि पूर्वज्ञानके रहते उत्तर ॐ ज्ञानके माननेपर जब विज्ञान अनेकक्षणस्थायी होगा तो स्वयं वह अनेक पदार्थोंको ग्रहण करनेवाला सिद्ध हो जायगा। तथा बौद्ध लोग एकही मनसे अनेक ज्ञानोंकी उत्पत्ति मानते हैं इसलिए जिसतरह एक ही मन अनेक ज्ञानोंकी उत्पचिमें कारण है उसीतरह एक ज्ञान भी अनेक पदार्थों को ग्रहण कर सकता है ऐसा मानने में क्या आपचि है। यदि कदाचित् बौद्ध यह कहें कि--एक ज्ञान अनेक पदार्थों को
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