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________________ C माषा अंतरंगं तत्करणमिद्रियानपेक्षत्वात् ॥३॥ जिसको अपने कार्यके करनेमें इंद्रियोंकी अपेक्षा न हो वह इंद्रियानपेक्ष कहा जाता है । मन जिस || समय गुण और दोषोंका विचार करनारूप अपने विषयमें प्रवृच होता है उस समय उसे किसी भी इंद्रिय की अपेक्षा नहीं करनी पडती इसलिये वह अंतरंग इंद्रिय है। इस गीतसे जो ज्ञान पांच इंद्रिय और मनके अवलंबनसे हो वह मतिज्ञान है इसप्रकार मतिज्ञानके कारणोंका निर्दोषरूपसे निश्चय हो चुका। शंका तदित्यग्रहणमनंतरत्वादिति चेन्नोत्तरार्थत्वात् ॥ ४॥ इस सूत्रसे पहिले सूत्रमें मतिज्ञानका ही वर्णन किया गया है इसलिये असंत अव्यवहित होनेसे | ६|| तदिद्रियानिद्रियानिमित्त' इस सूत्रमें मतिज्ञानकी ही अनुवृत्ति आवेगी और उसीके इंद्रिय और अनि || द्रिय कारण माने जायगे, अन्य किसी पदार्थके नहीं माने जा सकते फिर मतिज्ञानके ग्रहण करनेके लिये || जो सूत्रमें तत् शब्दका ग्रहण किया गया है वह व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। आगेके सूत्रोंमें भी मतिज्ञान || 8 का संबंध है इसलिये उनके अर्थको सुगमतासे खुलासा करनेके लिये सूत्रमें 'तत्' शब्दका उल्लेख किया | गया है यदि इस सूत्रमें तत् शब्दका उल्लेख नहीं किया जाता तो 'अवग्रहहावायधारणाः' इस आगेके || PII 5) सूत्रका अवग्रह ईहा अवाय धारणा ये भेद मतिज्ञानके हैं यह अर्थ नहीं जाना जा सकता कितु इंद्रिय || और अनिद्रियके भेद हैं यह भी शंका हो जाती परन्तु तत्' शब्दके ग्रहण करनेसे अवग्रह आदि मति॥६ज्ञानके भेद हैं यह सुगमरूपसे अर्थ हो जाता है इसलिये तत् शब्दका उल्लेख व्यर्थ नहीं ॥१५॥ इंद्रिय और अनिद्रियरूप मतिज्ञानके कारणोंका वर्णन हो चुका और उससे उसका स्वरूप भी हा विय कारण मनियनिमित्त इस समविज्ञानका ही वर्णन केन्चोत्तरार्थत्वात् । APESABREAAAAAAABCISIS AMERIKARAN
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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