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अध्याय
UKSORRE GANGREACHESARIHCHORECASTUREDIE
तवादके प्रतिपादक भगवान जिनेंद्रका मत है वह कभी एकांतवादमें लागू नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञान को सर्वथा निर्विकल्पक मानने पर कैसे भी आकारकी कभी भी उसमें कल्पना नहीं की जा सकती। यदि कदाचित् यही हठ की जायगी कि निर्विकल्पक होने पर भी हम उसे तीन आकारस्वरूप मानेंगे ही तब द्रव्यको अनेकाकार स्वरूप कहने में क्या आपचि है ? वहां भी एक परमाणु द्रव्यको रूपादि अनेक हू स्वरूप, वा एक ही आत्मा द्रव्यको ज्ञान आदि अनेकस्वरूप मान लेना चाहिये । यदि यहांपर फिर भी हूँ वादी बौद्ध यह कहे कि उपर्युक्त आकारोंको ज्ञानस्वरूप मानें तब तो अनेक धर्मस्वरूप द्रव्यकी सिद्धि है हो सकती है परंतु हम तो ग्राहक आदि शक्तियोंको आकार मात्र मानते हैं उन्हें ज्ञानस्वरूप नहीं कहते है इसलिये हमारे मतमें अनेक धर्मात्मक द्रव्यकी सिद्धिकी आपत्ति नहीं हो सकती ? सो भी ठीक नहीं। वहां पर भी यह प्रश्न उठेगा कि यदि वे ज्ञानके आकार नहीं हैं तब किसके आकार हैं ? क्योंकि आकार किसी न किसी पदार्थके होते हैं यदि उन्हें किसी पदार्थका आकार न बतलाकर केवल आकारमात्र ५ हूँ बतलाया जायगा तो विना आधारके उसका अभाव ही हो जायगा इसलिये उन आकारोंको ज्ञानस्वहूँ रूप ही मानना पडेगा और ज्ञानस्वरूप माननेसे अनेक धर्मात्मक द्रव्यकी सिद्धिको आपचि ज्योंकी है सो रहेगी और भी यह बात है कि उन आकारोंकी ज्ञानमें एक साथ उत्पचि होती है कि क्रमसे ?
यदि एक साथ उत्पति मानी जायगी तो ग्राहक-प्रमाण और संविचि-फल भी एक साथ उत्पन्न होंगे इसलिये उनमें प्रमाण कारण और फल कार्य न कहाया जा सकेगा क्योंकि पहिले कारण, पीछे ॐ कार्य इसप्रकार क्रमवृत्ति पदार्थोंमें ही कार्य कारणके विभागका नियम है । एक साथ उत्पन्न होनेवाले
पदार्थोंमें कार्य कारणपनेका नियम नहीं लागू हो सकता। यदि उन आकारोंकी क्रमसे उत्पत्ति मानी
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