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अध्याय
तरा भाषा
ही प्रकाशित करता है तथा वह प्रकाशपना ही दीपककी स्थितिमें कारण है। यदि पदार्थोंको प्रकाशित | न करे तो अपना 'दीपक' नाम भी कायम नहीं रख सकता इसलिये अंधकारमें स्थित पदार्थों के प्रका॥ शनके बाद भी उत्तर कालमें प्रकाशमान होनेसे उसका दीपक नाम नहीं छूटता उसी तरह ज्ञान भी है। उत्पन्न होते ही घट पट आदि पदार्थों का जाननेवाला है तथा वह जानना ही ज्ञानकी स्थितिमें कारण है। || यदि वह पदार्थोंको न जान सके तो उसका 'ज्ञान' नाम ही कायम नहीं रह सकता इसलिये घट पट आदि
पदार्थोंके जाननेके बाद भी उत्तर कालमें पदार्थों के जाननास्वरूप कार्यमें परिणत रहनेसे उसका प्रमाण नाम नहीं छूट सकता इस रीतिसे जब उत्तरज्ञान भी प्रमाण सिद्ध होते हैं और संतानके प्रथम ज्ञानके सिवाय उनमें अपूर्वता है नहीं तब प्रमाणका 'अपूर्वाधिगम' विशेषण सर्वथा व्यर्थ ही है। किंतु जिसके | द्वारा पदार्थों का निश्चय हो वह प्रमाण है इतना ही प्रमाणका अर्थ ठीक है इस अर्थसे संतानके, अन्दर | रहनेवाले पूर्व उत्तर सभी ज्ञानोंको.प्रमाणता सिद्ध हो जाती है क्योंकि सब ज्ञानोंसे पदार्थोंका निश्चय है होता है यदि कदाचित् यहां यह समाधान दिया जाय कि क्षण क्षणमें दीपक नवीन नवीन ही उत्पन्न
होता है और पदार्थों को प्रकाशित करता है इसलिये जो प्रथम क्षणमें दीपक है वह उत्तरकालमें दीपक का नहीं कहा जा सकता तब ज्ञान भी दीपकके समान क्षण क्षणमें नवीन नवीन ही उत्पन्न होनेवाला मानना
होगा तथा ज्ञानको क्षणिक माननेपर प्रमाणका जो 'अपूर्वाधिगम' विशेषण माना है वह भी चरितार्थ 18 हो जायगा क्योंकि क्षण क्षणमें उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अपूर्वज्ञान ही होगा परन्तु स्मृतिज्ञान इच्छा और ६ द्वेष आदिके समान पूर्व पूर्व ज्ञानों द्वारा निश्चित किये गये पदार्थोंको विषय करने के कारण फिर फिरसे
कहा जानेवाला अर्थात् अनेक क्षणस्थायी ज्ञान प्रमाण है, बौद्धोंने जो यह कहा है उसका व्याघात हो
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