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अध्याय
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भाव हो सकता है कोई दोष नहीं । सो भी अयुक्त है । यदि इस रूपसे कार्य कारणभाव माना जायगा है तो एक ही कालमें उत्पन्न और विनश जानेवाले भिन्न भिन्न संतानवर्ती घट और पटका भी आपसमें है
कार्य कारणभाव कहना पडेगा। यदि कदाचित यह कहा जायगा कि एक ही संतान के अंदर यह शक्ति ए मानी है कि उसी संतानके अन्दर एक ही कालमें उत्पन्न और विनश जानेवाले पूर्व और उत्तर पदार्थों 5
में कार्य कारण भाव हो सकता है किंतु एक ही कालमें उत्पन्न और विनश जानेवाले भिन्न संतानियोंमें ६ नहीं इसलिये भिन्न संतानियोंमें कार्य कारणभाव नहीं हो सकता ? सो भी ठीक नहीं । यदि ज्ञानसंतान हूँ में शक्ति मानी जायगी तो ज्ञान निर्विकल्पक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि जिसमें शक्ति जान पडती है है वह सविकल्पक माना जाता है इसलिये ज्ञान-संतानमें शाक्त स्वीकार करनेपर ज्ञान निर्विकल्पक है। यह प्रतिज्ञा भंग हो जाती है। इस रीतिसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि प्रत्यक्षज्ञान कल्पनासे रहित हैं। यह जो बौद्धमतमें प्रत्यक्षका लक्षण माना गया है वह निर्दोषरूपसे नहीं।
अपूर्वाधिगमलक्षणानुपपत्तिश्च सर्वस्य ज्ञानस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः ॥ १२ ॥ बौद्धोंने प्रमाणके लक्षणमें 'अपूर्वाधिगम' विशेषण दिया है और जो ज्ञान पहिले किसी भी ज्ञान द्वारा निश्चित न हुआ हो वह प्रमाण है, यह उस अपूर्वाधिगम' विशेषणका अर्थ है परन्तु उन्होंने ज्ञान है की संतान मानी है इसलिये प्रमाणका जो उन्होंने 'अपूर्वाधिगम' विशेषण माना है वह व्यर्थ हो जाता है है क्योंकि ज्ञानकी संतानमें पहिला ज्ञान तो अपूर्वज्ञान हो सकता है परंतु उसके उत्तर ज्ञान अपूर्व ज्ञान में नहीं हो सकते । यहाँपर यह वात नहीं कही जा सकती कि संतानमें जो पहिला ज्ञान है वह तो प्रमाण २७४
है और उचर ज्ञान प्रमाण नहीं क्योंकि जिस तरह-अंधकारमें विद्यमान पदार्थों को दीपक उत्पन्न होते
ULELIGANGANAGISTRARECHARNALISTRICAN