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________________ ०रा० अध्याय भाषा SECASTEREDABASANCHEBARELI जायगा तो कथंचित् कल्पनायुक्त उसे मानना पडा इसलिये सर्वथा कल्पनासे रहित है। यह वचन व्या| हत हो गया। यदि कदाचित् यह कहा जायगा कि हम कथंचित् कल्पनारहित प्रत्यक्ष स्वीकार करते है है-अर्थात् प्रत्यक्ष कल्पनारहित है इत्यादि कल्पनासे युक्त तो है परन्तु जाति आदिकी कल्पनासे रहित है सो भी ठीक नहीं। यहांपर भी वह वचनव्याघात दोष ज्योंका त्यों उपस्थित है क्योंकि बौद्ध लोग। एकांतसे प्रत्यक्षको 'कल्पनारहित मानते हैं' यदि उसे कथंचित् कल्पनासे रहित माना जायगा तो एकांतका त्याग कर देना पडेगा क्योंकि कथंचित् शब्द अनेकांतका द्योतक है इसलिये कथंचित् कल्पनासे | रहित प्रत्यक्ष को नहीं माना जा सकता । यदि यहांपर भी यह समाधान दिया जाय कि 'प्रत्यक्ष कल्पना से रहित ही है' यह हमारे एकांत नहीं इसलिये उसे कथंचित् कल्पनासे रहित माननेमें स्ववचनव्याघात नहीं हो सकता ? सो भी अयुक्त है। फिर प्रत्यक्षका 'कल्पनापोट' यह विशेषण ही व्यर्थ हो जायगा। है क्योंकि 'कल्पनासे रहित है' इत्यादि अनुरूप प्रत्यक्षमें कल्पना मान ली गई तब वह 'कल्पनापोढ' नहीं। कहा जा सकता। यदि यहांपर फिर यह कहा जाय कि परमत-जैन आदि मतोंमें नाम जाति आदि की भेदकल्पना व्यवहारसे मानी गई है निश्चयसे नहीं। इसलिये वैसी कल्पनाओंसे रहित हम (बौद्ध); | प्रत्यक्षको मानते हैं किंतु वितर्क विचार आदि जो प्रत्यक्षसंबंधी विकल्प हैं उनसे रहित नहीं मानते ६ । इसलिये 'कल्पनापोढ' यह जो प्रत्यक्षका विशेषण है वह परमतकी अपेक्षा है, व्यर्थ नहीं है। इसी विषय .. में यह वचन भी है सवितर्कविचारा हि पंच विज्ञानघातकः । निरूपणानुस्मरणविकल्पनविकल्पकाः॥१॥ है अर्थात्-वितर्क विचार निरूपण अनुस्मरण और विकल्पन ये पांच विज्ञानके धर्म है। विज्ञानके. . ANSARSWASTASBIR9-18-STHA NEFIBHABHINE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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