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________________ ४२००५ ! तथापि वार्तिककार अन्य मतोंमें मानेगये प्रत्यक्ष के लक्षणोंकी उपेक्षा कर बौद्ध मतमें जो प्रत्यक्ष-लक्षण माना है; उसीका प्रतिवाद करते हैं क्योंकि वार्तिककारका स्वयं यह कहना है कि- बौद्धके सिवाय जो अन्यमत हैं उनमें माने गये प्रत्यक्ष के लक्षणका बौद्धोंने अच्छी तरह खंडन कर दिया है इसलिये उनके खंडन करने की यहां हमारी विशेष इच्छा नहीं है किंतु बौद्धमतमें जो प्रत्यक्षका लक्षण माना गया है उसमें कुछ गुणोंकी संभावना लोगों को दीख पडती है इसलिये बौद्ध मतमें मानेगये प्रत्यक्ष के लक्षण के निराकरण करनेकेलिय यहां हम कुछ विचार करते हैं और वह इसप्रकार है बौद्धोंने जो 'कल्पनापोढं प्रत्यक्ष' अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की कल्पना न हो सके वह प्रत्यक्ष है, यह प्रत्यक्षका लक्षण माना है । वहांपर जाति गुण और क्रियाका जो कहना उससे होनेवाला जो वचन और बुद्धिका विकल्प अर्थात् यह जाति है, यह गुण है, यह क्रिया है ऐसा वचन और जातिको जाति रूपसे, गुणको गुणरूप से और क्रियाको क्रिया रूपसे जाननारूप बुद्धि उसका जो भेद, वह कल्पना शब्दका अर्थ है उससे रहित प्रत्यक्ष कहा जाता है | वहाँपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रत्यक्षको जो कल्पनारहित माना गया है वह सर्वथा कल्पनारहित है कि कथंचित् कल्पनारहित है ? यदि सर्वथा 'कल्पनासे रहित है' यह अर्थ माना जायगा तो स्ववचनव्याघात दोष होगा क्योंकि 'प्रत्यक्षज्ञान कल्पनासे रहित है' यह भी तो कल्पना ही है, इस कल्पना से रहित भी प्रत्यक्ष ज्ञानको मानना पडेगा फिर प्रत्यक्षका कोई लक्षण ही न स्थिर होगा । यदि यह कहा जायगा कि 'कल्पनासे रहित है' इत्यादि कल्पना युक्त ही प्रत्यक्ष माना जायगा तब भी वचनका व्याघात ही है क्योंकि 'प्रत्यक्ष सर्वथा कल्पना से रहित है' यह स्वीकार किया गया है अब यदि 'कल्पनारहित है' इत्यादि कल्पनासे युक्त उसे माना अध्याय २७०.
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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