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________________ अध्यार मानी है इसलिये उनके मतमें स्वरूप पररूप और उभय-स्वपररूप हेतु वा अहेतुओंसे पदार्थ उत्पचि । * आदि स्वरूप सिद्ध हो नहीं सकते अथवा एक अनेक स्वरूप जो सामान्य और विशेष धर्म है उनका छ भी एकातरूपसे रहना पदार्थोंमें असंभव आदि दोषोंसे परिपूर्ण है इसलिये परमतकी अपेक्षा समस्त | टू पदार्थ ही सिद्ध नहीं हो सकते इस रीतिसे समस्त पदार्थ ही तो योगिज्ञानके अवलंबन हैं जब समस्त हूँ ऐ पदार्थोंकी ही असिद्धि रहेगी तब योगिज्ञान निरालंबन ठहरेगा जो बाधित होनेसे माना नहीं जाएं है सकता। यदि यहां पर यह कहा जाय कि सविकल्पक कोई पदार्थ नहीं सब पदार्थ निर्विकल्पक ही हैं है है इसलिये योगिज्ञानको निर्विकल्पक माननेमें कोई हानि नहीं ? सो भी अयुक्त हैं क्योंकि निर्विकल्पक , पदार्थका ज्ञान ही नहीं हो सकता। वास्तवमें तो परमतके शास्त्रों में न निर्विकल्पक पदार्थका कोई लक्षण | १ बतलाया है और न निर्विकल्पक पदार्थको विषय करनेवाले ज्ञानहीका कोई लक्षण कहा है इसलिये % परमतमें न कोई निर्विकल्पक पदार्थ है और न निर्विकल्पक पदार्थको विषय करनेवाला कोई ज्ञान है 5 ६ इसरीतिसे योगिज्ञानको अतींद्रिय प्रत्यक्ष मान उससे समस्त पदार्थों का ज्ञान मानना प्रलापमात्र है। हूँ हूँ और भी यह बात है तदभावाच ॥१०॥ परमतमें जिस योगीकी कल्पना की गई है उसका कोई विशेष लक्षण नहीं माना गया इसलिये उसका अभाव ही है तथा परमतमें एकांतरूपसे समस्त पदार्थ भी सिद्ध नहीं हो सकते इसलिये जब ॐ समस्त पदार्थों का अभाव है तब उन समस्त पदार्थोंके जाननेवाले योगीका भी अभाव सुतरां सिद्ध है। 8 २६८ यदि कदाचित् यह कहा जाय कि निर्वाणके दो भेद माने हैं एक सोपधिविशेष जिसको कि जीवन्मुक्त ।
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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